"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥"
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यह विष्णु सहस्त्रनाम का प्रथम मंत्र है जो इतना गहन है कि कोई भी विद्वान महात्मा चाहे तो लगातार कई घंटों तक इस पर प्रवचन दे सकता है। यहाँ भगवान को भूतभृत भी कहा गया है, जिस का अर्थ है समस्त प्राणियों का भरण-पोषण करने वाले। जिस तरह एक माँ एक शिशु को जन्म देकर उसका भरण-पोषण करती है, वैसे भी भगवान भी हम सब का भरण-पोषण करते हैं।
गीता में भगवान कहते हैं --
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥१५:१७॥"
अर्थात् - परन्तु उत्तम पुरुष अन्य ही है, जो परमात्मा कहलाता है और जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण (भरण-पोषण) करने वाला अव्यय ईश्वर है॥
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आचार्य रामानुज का एक शिष्य “भूतभृते नम” मंत्र से भगवान रंगनाथ की आराधना करता था। भगवान वेश बदल कर स्वयं उसे अपना प्रसाद उसके घर जाकर दे आया करते थे।
८ जून २०२४
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