Saturday, 7 June 2025

मौन की आवश्यकता ---

मौन की आवश्यकता ---

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मौन होकर ही हमें परमात्मा की उपासना करनी चाहिए। गीता के दसवें अध्याय के अड़तीसवें मंत्र में भगवान ने स्वयं को गोपनीय भावों में मौन और ज्ञानवानों में ज्ञान बताया है -- "मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।"
इधर-उधर की फालतू बातों को त्यागकर मौन होकर ही हमें भगवान का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करना चाहिए।
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जैसे जैसे हम ज्ञान की गहराई में जाते हैं, दो तरह के तथ्य हमारे समक्ष आते हैं।
(१) सर्वप्रथम तो वे तथ्य सामने आते हैं जिन पर चर्चा, वाद-विवाद और विमर्श हो सकता है।
(२) तत्पश्चात् कुछ ऐसे तथ्य हमारे समक्ष आते हैं, जिन पर किसी भी तरह का कोई विमर्श नहीं हो सकता। वे निजानुभूतियाँ होती हैं, जिन की चर्चा हम किसी से करेंगे तो भी कोई उसे समझेगा नहीं, हमारी हँसी ही उड़ाएगा, और हमें मूर्ख समझेगा। वहाँ मौन ही रहना चाहिए।
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परमात्मा की अनुभूतियों की चर्चा सबसे अधिक पश्चिमी देशों के चर्च करते है, जो एक भावनात्मक उन्माद मात्र ही होता है; उसमें कोई सच्चाई नहीं होती। कोई पच्चीस-तीस वर्षों पुरानी बात है। कनाडा के वेंकूवर नगर में मैं एक महिला पादरी का व्याख्यान सुनने चला गया जिसके बारे में बताया गया था कि संगीत के साथ उसका व्याख्यान इतना अधिक भावुक और कारुणिक होता था कि सुनने वाले सब श्रौता रोने लगते थे। मैं स्वयं को जाँचने हेतु दृढ़ निश्चय कर के गया था कि मुझे कुछ नहीं होगा। लेकिन जब उसका संगीतमय प्रवचन आरंभ हुआ जो अत्यधिक भावुक और करुण रस में था, तो मैंने देखा कि उस हॉल में बैठे सभी लोगों की आँखों में आँसू थे। वह महिला सभी को आँखें पोंछने के लिए टिश्यू पेपर दे रही थी और जीसस क्राइस्ट की महिमा का बखान कर रही थी। बाद में उसने मेरे ऊपर भी पता नहीं क्या सम्मोहन किया कि मेरी भी आँखें आंसुओं से भर गयीं और मैं भी सम्मोहित हो कर होश खो बैठा। वह मेरे पास आई और बोली -- "बेटे, सिर्फ जीसस क्राइस्ट पर ही विश्वास करो, वह तुम्हारे सब दुःख दूर कर देगा।" यह कोई आसुरी सम्मोहन था जिसकी कोई काट उस समय मेरे पास नहीं थी।
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इसके विपरीत मैं भारत में हुये कुछ अनुभव बताना चाहूँगा। एक बार मैं एक योगी महात्मा से मिलने गया। उन दिनों जिज्ञासु भाव था और मन में अनेक प्रश्न थे। उनके समक्ष जाकर मैं मौन और ध्यानस्थ हो गया। सारे प्रश्न विस्मृत हो गए। कुछ देर बाद उन्होने बापस भेज दिया। दूसरे दिन मैंने एक कागज पर अनेक प्रश्न लिखे और उस कागज को अपनी कमीज की ऊपरी जेब में रखा और उन्हें पूछने फिर चला गया। वहाँ जाते ही मैं भूल गया कि मुझे कुछ पूछना है, और मैं शांत, मौन और ध्यानस्थ हो गया। मैं समझ गया कि ईश्वर संबंधी सब प्रश्नों के उत्तर मौन में ही हैं। इस तरह के अनुभव मुझे दो तीन और भी महात्माओं के साथ हुए हैं।
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मौन होकर ही हमें परमात्मा की आराधना करनी चाहिए। इधर-उधर की फालतू बातों को त्यागकर मौन में ही भगवान का चिंतन और ध्यान करना चाहिये।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ जून २०२४

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