Wednesday, 4 June 2025

यथार्थ में हमारा एकमात्र शाश्वत सम्बन्ध परमात्मा से है, अन्य किसी से भी नहीं।

 

यथार्थ में हमारा एकमात्र शाश्वत सम्बन्ध परमात्मा से है, अन्य किसी से भी नहीं।
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(जिन्हें इसी जीवन में मोक्ष चाहिए, उनके लिए गीता के आठवें अध्याय "अक्षरब्रह्मयोग" को समझना बहुत आवश्यक है। इस अध्याय को बहुत अच्छी तरह से समझकर उपासना करने से इसी जीवन में भगवान की प्राप्ति हो सकती है।) परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय पर चिंतन मेरे लिए अत्यंत दुखद है। मेरा एकमात्र सुख परमात्मा है। परमात्मा के अतिरिक्त मैं कुछ सोचना भी नहीं चाहता। अनात्म चिंतन बड़ा दुखद है।
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हमारा एकमात्र शाश्वत सम्बन्ध भगवान से है, अन्य किसी से भी नहीं। जब हमारा जन्म इस मनुष्य शरीर में हुआ था, तब जन्म से पूर्व, भगवान ही हमारे साथ थे। इस शरीर की मृत्यु के पश्चात भी भगवान ही हमारे साथ रहेंगे। जन्म लेने पर भगवान का ही प्रेम हमें माता-पिता के माध्यम से मिला। भाई-बहिन, सभी संबंधियों, और सभी मित्रों के माध्यम से जो भी प्रेम हमें मिला वह भगवान का ही प्रेम था; अन्य सब एक माध्यम थे। हमारा अस्तित्व भगवान का ही एक संकल्प या उन के मन की एक कल्पना मात्र है। कोई अपना पराया नहीं है। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध भी भगवान से ही सम्बन्ध है। गुरू भी एक निश्चित भावभूमि तक ले जा कर छोड़ देता है, आगे की यात्रा तो स्वयं को ही करनी पड़ती है। फिर न कोई गुरु है और न कोई शिष्य, एकमात्र भगवान ही सब कुछ हैं। सारे सम्बन्ध एक भ्रम मात्र हैं।
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हमारा अस्तित्व भगवान की ही एक अभिव्यक्ति है। वे ही इस देह को जीवंत रखे हुए हैं, वे ही इस हृदय में धड़क रहे हैं, वे ही इन आंखों से देख रहे हैं, इन हाथ-पैरों से वे ही सारा कार्य कर रहे हैं। हमारा पृथक अस्तित्व एक माया और भ्रम है। हमारा एकमात्र लक्ष्य सिर्फ उन के परमप्रेम की अभिव्यक्ति और उन में समर्पण है।
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जो भी हमें उन की चेतना से दूर ले जाए वह कुसंग है जो सर्वदा त्याज्य है। जो उन का प्रेम हमारे में जागृत करे वह सत्संग है। जब हमें भूख लगती है, तब भोजन तो स्वयं को ही करना पड़ता है। दूसरे का किया भोजन हमारा पेट नहीं भर सकता। वैसे ही स्वाध्याय, सत्संग और साधना तो स्वयं को ही करनी होगी। प्रभु के प्रेम में निरंतर डूबे रहना ही सत्संग है, और प्रभु को विस्मृत करना कुसंग है।
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श्रीमद्भगवद्गीता के "अक्षरब्रह्मयोग" में भगवान का निर्देश है कि निरंतर हर समय, अंत समय तक उनका ही स्मरण रहे --
"अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्‌।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥८:४॥"
"अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्‌ ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८:५॥"
"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्‌ ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८:६॥"
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌॥८:७॥"
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌॥८:८॥"
"कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌॥८:९॥"
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८:१०॥"
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
(उपरोक्त श्लोकों का अर्थ और भाष्य का स्वाध्याय आप अपनी श्रद्धानुसार अपने समय में पूर्ण एकाग्रता से कीजिये)
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मुझे तो पूरी श्रद्धा और विश्वास है कि भगवान ही हर समय मुझे याद करेंगे, इस देह के अंतकाल में भी। यह जीवन उन्हीं का है, यह देह भी उन्हीं की है, जो जला कर भस्म कर दी जाएगी, लेकिन मैं तो उनके हृदय में ही निरंतर सदा रहूँगा।
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"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम्‌।
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर॥" (ईशावास्योपनिषद मंत्र १७)
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भगवान हैं, इसी समय हैं, हर समय हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र हैं, मेरे समक्ष हैं, हर समय मेरे साथ हैं। उन की असीम कृपा सब पर निरंतर बनी रहे।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जून २०२३

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