ईश्वर की प्राप्ति मेरा धंधा (व्यवसाय) है। इस व्यवसाय में कुछ मिलता नहीं है, जो कुछ भी पास में है, वह भी छीन लिया जाता है। इस धंधे में जो पड़ गया उससे कुछ भी अपेक्षा करना बेकार है।
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ईश्वर बड़े ईर्ष्यालु प्रेमी हैं। वे अपने प्रेमी से शत-प्रतिशत समर्पण मांगते हैं, उससे कम कुछ भी नहीं। अपने से पृथक कुछ भी चिंतन को श्रीमद्भगवद्गीता में उन्होंने व्यभिचार की संज्ञा दी है --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिर्व्यभिचारिणी।
अर्थात् -- "अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
(Unswerving devotion to Me, by concentration on Me and Me alone, a love for solitude, indifference to social life;)
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भगवान क्या कहते हैं, इसे समझने के लिए इससे पूर्व के तीन श्लोकों को समझना भी अनिवार्य है ---
"अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥१३:८॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
"इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥१३:९॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
"आसक्तिर्णभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥१३:१०॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- "अमानित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, आर्जव, आचार्य की सेवा, शुद्धि, स्थिरता और आत्मसंयम॥"
Humility, sincerity, harmlessness, forgiveness, rectitude, service of the Master, purity, steadfastness, self-control;
"इन्द्रियों के विषय के प्रति वैराग्य, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धवस्था, व्याधि और दुख में दोष दर्शन...৷৷"
Renunciation of the delights of sense, absence of pride, right understanding of the painful problem of birth and death, of age and sickness;
"आसक्ति तथा पुत्र, पत्नी, गृह आदि में अनभिष्वङ्ग (तादात्म्य का अभाव); और इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में समचित्तता॥"
Indifference, non-attachment to sex, progeny or home, equanimity in good fortune and in bad;
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महाभारत के अनुशासन-पर्व के १५वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने महाराजा युधिष्ठिर को महर्षि तंडी कृत शिव-सहस्त्रनाम का उपदेश दिया है, उसमें भी अव्यभिचारिणी भक्ति का उल्लेख किया है। यह उपदेश भगवान श्रीकृष्ण को महर्षि उपमन्यु से मिला था।
यहाँ केवल श्रीमद्भगवद्गीता की ही चर्चा करेंगे
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परमात्मा का आकर्षण बड़ा प्रबल है। बुद्धि इसे नहीं समझ सकती। उनकी अनुभूति इतनी दिव्य है कि उसकी तुलना नहीं की जा सकती। यह अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं; अतः इस पर चर्चा केवल मुमुक्षुओं से ही की जा सकती है। जिज्ञासु जन इस विषय का व्यावहारिक अनुसंधान करें। जो सिर्फ बुद्धि द्वारा ही समझना चाहते हैं, उन्हें भी बौद्धिक संतुष्टि तो मिलेगी ही। इस विषय को विस्तार से समझने के लिए शंकर भाष्य और अन्य भी दो-तीन भाष्यों का स्वाध्याय करें व भगवान से प्रार्थना और उन का ध्यान करें। हरिः ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ अप्रेल २०२५
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