Saturday 13 November 2021

यतः कृष्णस्ततो धर्मो, यतो धर्मस्ततो जयः ---

 यतः कृष्णस्ततो धर्मो, यतो धर्मस्ततो जयः ---

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जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं धर्म है; जहाँ धर्म है, वहीं विजय है। हे सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ! चैतन्य में तुम्हारी निरंतर उपस्थिति ही मेरा धर्म है, और तुम्हारी विस्मृति मेरा अधर्म। तुम ही मेरे आत्म-सूर्य और इस जीवन के ध्रुव हो। तुम ही तुम हो, मैं नहीं। तुम ही मेरा अस्तित्व हो। अब और विलम्ब क्यों? इस पीड़ा को तुरंत शांत करो। बहुत देर हो चुकी है।
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"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥"
(जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है, वहीं पर श्री विजय विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है).
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"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
(हे पार्थ! यह आध्यात्मिक जीवन (ब्रह्म की प्राप्ति) का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य कभी मोहित नही होता है, यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस पथ पर स्थित हो जाता है तब भी वह भगवद्प्राप्ति करता है).
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जब तक सांसें चल रही हैं तब तक उम्मीद बाकी है। अब तो तुम्हारी एक प्रेममय कृपादृष्टि के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए। और विलम्ब मत करो।
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० नवम्बर २०२१

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