"वासुदेवः सर्वं इति" .....
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अत्यधिक भावुक हो कर भावविभोर व भावविह्वल होना मेरी एक कमजोरी है जिस पर नियंत्रण मेरे वश में नहीं है| अपनी इस कमजोरी को एक ईश्वर-प्रदत्त अवसर मानकर उसका सदुपयोग करना ही विवेक है| आजकल कुछ भी लिखना असंभव सा हो गया है| कुछ भी लिखते हैं या करते हैं तो भगवान वासुदेव की साकार छवि सामने आ जाती है| अब उन्हें निहारें या अन्य कोई काम करें? उन्हें निहारना ही अधिक प्रिय लगता है| पूरी सत्यनिष्ठा से यह अप्रिय सत्य लिख रहा हूँ कि मेरी सारी साधनायें छुट गई हैं| जो कुछ भी होता है या जो कुछ भी यदि कोई करता है, तो वे ही करते हैं, मैं नहीं| जब "वासुदेवः सर्वं इति" हो जाता है तब कोई भी साधना संभव ही नहीं रहती है| यह अपने आप में ही एक साधना बन जाती है| भगवान कहते हैं ....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||"
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यह अनुभूति ईश्वर की परम कृपा से ही होती है| जब भगवान ने करुणावश इतनी बड़ी कृपा की है तो इसे क्यों नकारें? इस जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि ही मैं यही मानता हूँ| भगवान ने गीता के सातवें अध्याय में ही कहा है कि भोग-विलास की थोड़ी सी भी कामना जिनमें बाकी है उनसे वे भी दूर ही रहते हैं|
तेरहवें अध्याय में तो वे स्पष्ट कहते हैं ....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
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और कुछ भी लिखना अब संभव नहीं है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ जून २०२०
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