भगवान कहते हैं ..... यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि (मैं यज्ञों में जपयज्ञ हूँ) ---
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"महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्| यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः||१०:२५||
अर्थात् "मैं महर्षियों में भृगु और वाणी (शब्दों) में एकाक्षर ओंकार हूँ| मैं यज्ञों में जपयज्ञ और स्थावरों (अचलों) में हिमालय हूँ||"
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अग्नि पुराण के अनुसार ....."जकारो जन्म विच्छेदः पकारः पाप नाशकः| तस्याज्जप इति प्रोक्तो जन्म पाप विनाशकः||" इसका अर्थ है .... ‘ज’ अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा, ‘प’ अर्थात् पापों का नाश ..... इन दोनों प्रयोजनों को पूरा कराने वाली साधना को ‘जप’ कहते हैं|
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अतः सबसे बड़ा यज्ञ ... "जपयज्ञ' है| इस से बड़ा दूसरा कोई यज्ञ नहीं है| इसमें हम अपनी स्वयं की ही हवि शाकल्य बन कर, स्वयं ही श्रुवा बन कर, स्वयं की ही ब्रह्मरूप अग्नि में, स्वयं ही ब्रह्मरूप कर्ता बन कर हवन करते हैं| हमारा गन्तव्य भी ब्रह्म ही है|
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कोई भी साधना जितने सूक्ष्म स्तर पर होती है वह उतनी ही फलदायी होती है| जितना हम सूक्ष्म में जाते हैं उतना ही समष्टि का कल्याण कर सकते हैं| वाणी के चार क्रम हैं ----- परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी| जिह्वा से होने वाले शब्दोच्चारण को बैखरी वाणी कहते हैं| उससे पूर्व मन में जो भाव आते हैं वह मध्यमा वाणी है| मन में भाव उत्पन्न हों, उससे पूर्व वे मानस पटल पर दिखाई भी दें वह पश्यन्ति वाणी है| और उससे भी परे जहाँ से विचार जन्म लेते हैं वह परा वाणी है|
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पश्यन्ति और परा में प्रवेश कर के ही हम समष्टि का वास्तविक कल्याण कर सकते हैं| जप के लिये प्रयुक्त की जाने वाली वाणी का स्तर कैसा हो, इसे हर व्यक्ति अपने अपने स्तर पर ही समझ सकता है| हमारी चेतना सूक्ष्म देह में मेरुदंड के किस चक्र में है, उसी के अनुसार हमारे विचारों की सृष्टि होती है| यह अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं| अतः जप हमेशा आज्ञाचक्र से ऊपर ही अति सूक्ष्म स्तर पर करना चाहिए|
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साधनाकाल के आरंभ में जप वाणी द्वारा बोलकर ही होता है| फिर हरिःकृपा से शनैः शनैः आज्ञाचक्र से सहस्त्रार, फिर सहस्त्रार से ब्रह्मरंध्र, फिर ब्रह्मरंध्र से परे अनंत विस्तार में, और अनंत विस्तार से भी परे "परमशिव" में होता है| वहीं क्षीरसागर है जहाँ भगवान नारायण का निवास है| जब उनकी और भी अधिक कृपा होगी तब वे इस से से भी परे ले जाएँगे| परमात्मा की कृपा पर ही सब निर्भर है, स्वयं के प्रयासों पर नहीं| प्रयास भी वे ही करवाते हैं, और यथार्थ में करते भी वे स्वयं ही हैं|
गीता के निम्न श्लोकों को स्वयं को ही समझना होगा .....
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||"
"सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः| इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्||१८:६४||
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम||१८:७८||"
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हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! जय गुरु !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ जून २०२०
पुनश्च: :--- भगवान श्रीकृष्ण ने ऐकाक्षर ब्रह्म ओंकार के अतिरिक्त अन्य किसी भी मंत्र के जप को नहीं बताया है|
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