Thursday, 21 May 2020

भ्रूमध्य में ध्यान की महिमा .....

भ्रूमध्य में ध्यान की महिमा

भ्रूमध्य अवधान का भूखा है| कामनाओं से मुक्ति पाने के लिए हमें अपनी चेतना को सदा "भ्रूमध्य" में रखने और परमात्मा के ध्यान का नित्य नियमित अभ्यास करना होगा| यहाँ ध्यान से मेरा तात्पर्य है .... अजपा-जप (हंसयोग, शिवयोग), नादानुसंधान व क्रियायोग| खोपड़ी के पीछे का भाग मेरुशीर्ष (Medulla Oblongata) हमारी देह का सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है जहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ मष्तिष्क से मिलती हैं| इस भाग की कोई शल्यक्रिया नहीं हो सकती| हमारी सूक्ष्म देह में आज्ञाचक्र यहीं पर स्थित है| यह स्थान भ्रूमध्य के एकदम विपरीत दिशा में है| योगियों के लिए यह उनका आध्यात्मिक हृदय है| यहीं पर जीवात्मा का निवास है| इसके थोड़ा सा ऊपर ही शिखा बिंदु है जहाँ शिखा रखते हैं| उस से ऊपर सहस्त्रार और ब्रह्मरंध्र है|
.
गुरु की आज्ञा से शिवनेत्र होकर यानि बिना किसी तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में या जीभ को बिना किसी तनाव के ऊपर पीछे की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखते हुए, प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करें| गुरु की कृपा से कुछ महिनों या वर्षों की साधना के पश्चात् विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है| यह ब्रह्मज्योति और प्रणव की ध्वनि दोनों ही आज्ञाचक्र में प्रकट होती हैं, पर इस ज्योति के दर्शन भ्रूमध्य में प्रतिबिंबित होते हैं, इसलिए गुरु महाराज सदा भ्रूमध्य में ध्यान करने की आज्ञा देते हैं| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के पश्चात् उसी की चेतना में सदा रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से एक है|
.
कूटस्थ में परमात्मा सदा हमारे साथ हैं| हम सदा कूटस्थ चैतन्य में रहें| कूटस्थ में समर्पित होने पर ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है जिसमें हमारी चेतना परम प्रेममय हो समष्टि के साथ एकाकार हो जाती है| हम फिर परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं| भगवान कहते हैं ....
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
अर्थात् हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है| इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता| अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है||
यह अवस्था ब्राह्मी यानी ब्रह्म में होनेवाली स्थिति है, अर्थात् सर्व कर्मों का संन्यास कर के केवल ब्रह्मरूप से स्थित हो जाना है|
.
परमात्मा सब गुरुओं के गुरु हैं| उनसे प्रेम करो, सारे रहस्य अनावृत हो जाएँगे| हम भिक्षुक नहीं हैं, परमात्मा के अमृत पुत्र हैं| एक भिखारी को भिखारी का ही भाग मिलता है, पुत्र को पुत्र का| पुत्र के सब दोषों को पिता क्षमा तो कर ही देते हैं, साथ साथ अच्छे गुण कैसे आएँ इसकी व्यवस्था भी कर ही देते हैं| भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं" ||८:१०||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|
.
आगे भगवान कहते हैं .....
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च | मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||८:१२||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् | यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||८:१३||
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|
.
निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना ..... यह एक दिन का काम नहीं है| इसके लिए हमें आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा| उपरोक्त तथ्य के समर्थन में किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, भगवान का वचन तो है ही, और सारे उपनिषद्, शैवागम और तंत्रागम इसी के समर्थन में भरे पड़े हैं|
.
ध्यान का अभ्यास करते करते चेतना सहस्त्रार पर चली जाए तो चिंता न करें| सहस्त्रार तो गुरु महाराज के चरण कमल हैं| कूटस्थ केंद्र भी वहीं चला जाता है| वहाँ स्थिति मिल गयी तो गुरु चरणों में आश्रय मिल गाया| चेतना ब्रह्मरंध्र से परे अनंत में भी रहने लगे तब तो और भी प्रसन्नता की बात है| वह विराटता ही तो विराट पुरुष है| वहाँ दिखाई देने वाली ज्योति भी अवर्णनीय और दिव्यतम है| परमात्मा के प्रेम में मग्न रहें| वहाँ तो परमात्मा ही परमात्मा होंगे, न कि हम|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२० मई २०२०

1 comment:

  1. सब की अपनी-अपनी समझ है, सब का अपना-अपना स्वभाव है, और सबकी अपनी-अपनी क्षमता है| अतः सब की एक ही साधना पद्धति नहीं हो सकती| जो स्वयं के लिए उपयुक्त हो उसी साधना पद्धति को अपनायें| भगवान सब को मार्ग दिखा देते हैं| मुझे तो सब में परमात्मा के ही दर्शन होते हैं| अतः सभी को मैं नमन करता हूँ|

    ReplyDelete