Thursday, 21 May 2020

वीतरागता :---

वीतरागता :---

राग और द्वेष ये दो ही पुनर्जन्म यानि इस संसार में बारम्बार आने के मुख्य कारण हैं| जिनसे भी हम राग या द्वेष रखते हैं, अगले जन्म में उन्हीं के परिवार में जन्म होता है| जिस भी परिस्थिति और वातावरण से हमें राग या द्वेष है, वही वातावरण और परिस्थिति हमें दुबारा मिलती है| राग और द्वेष ही लोभ और अहंकार को जन्म देते हैं| मैं तो अपने जीवन में इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि मनुष्य का लोभ और अहंकार ही मनुष्य के सारे पापों का मूल, सब बुराइयों की जड़ और सब प्रकार की हिंसा का एकमात्र कारण है| मनुष्य के लोभ और अहंकार का जन्म भी राग और द्वेष से ही होता है|
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राग और द्वेष से मुक्त होने को 'वीतरागता' कहते हैं| यह मुक्ति का मार्ग है| जैन मत का तो उद्देश्य ही वीतरागता को प्राप्त होना है| यह भगवान महावीर के उपदेशों का सार है| वीतरागता मनुष्यत्व की वह परम अवस्था है जहाँ पर हम राग व विराग के भाव से मुक्त होकर परम-तत्व से साक्षात्कार करने लगते हैं| वीतरागी के लिए स्वर्ण व धूलि एक समान होते हैं, वह कुछ पकड़ता भी नहीं है और कुछ छोड़ता भी नहीं है| यह चैतन्य की एक बहुत ऊँची अवस्था है|
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गुरुगीता का ८९ वां श्लोक कहता है .....
"न तत्सुखं सुरेन्द्रस्य न सुखं चक्रवर्तिनाम्| यत्सुखं वीतरागस्य मुनेरेकान्तवासिनः ||"
अर्थात् एकान्तवासी वीतराग मुनि को जो सुख मिलता है वह सुख न इन्द्र को और न चक्रवर्ती राजाओं को मिलता है|
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वीतराग पुरुषों का चिंतन कर, उन्हें चित्त में धारण कर, उनके निरंतर सत्संग से हम स्वयं भी वीतराग हो जाते हैं| योगसूत्रों में एक सूत्र है ...."वीतराग विषयं वा चित्तम्'||
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वीतरागता ही वैराग्य है| भगवान श्रीकृष्ण हमें 'स्थितप्रज्ञ मुनि' होने का आदेश देते हैं जिसके लिए वीतराग तो होना ही पड़ता है .....
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः| वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते||२:५६||"
दुःख तीन प्रकार के होते हैं .... "आध्यात्मिक", "आधिभौतिक" और "आधिदैविक"| इन दुःखों से जिनका मन उद्विग्न यानि क्षुभित नहीं होता उसे "अनुद्विग्नमना" कहते हैं|
सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा यानि तृष्णा नष्ट हो गयी है (ईंधन डालने से जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे ही सुख के साथ साथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती) वह "विगतस्पृह" कहलाता है|
राग, द्वेष और अहंकार से मुक्ति वीतरागता है| जो वीतराग है और जिसके भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह "वीतरागभयक्रोध" कहलाता है|
ऐसे गुणोंसे युक्त जब कोई हो जाता है तब वह "स्थितधी" यानी "स्थितप्रज्ञ" और मुनि या संन्यासी कहलाता है| यह स्थितप्रज्ञता" ही वास्तविक "स्वतन्त्रता" है|
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भगवान श्रीकृष्ण ने राग-द्वेष से मुक्ति और वीतराग होने का मार्ग भी बता दिया है .....
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः| यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये||८:११||"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च| मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्||८:१३||"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः| तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः||८:१४||"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्| नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः||८:१५||'
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यह लेख बहुत अधिक लंबा हो गया है अतः इसका समापन यहीं करता हूँ| परमात्मा को कर्ता बनाकर सब कार्य करो| कर्तव्य निभाते हुए भी अकर्ता बने रहो| सारे कार्य परमात्मा को समर्पित कर दो, फल की अपेक्षा या कामना मत करो| किसी को किसी के प्रति भी राग और द्वेष मत रखो| बुराई का प्रतिकार करो, युद्धभूमि में शत्रु का भी संहार करो पर ह्रदय में घृणा बिलकुल भी ना हो| ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ मई २०२०
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पुनश्च: :---
परमात्मा में गहराई से स्थित होने पर ही मनुष्य का आचरण सही हो सकता है, अन्यथा नहीं| मुझे हर्ष तो तब होता है जब मैं पतित से पतित व्यक्ति का भी उत्थान होते हुए देखता हूँ| बड़े बड़े संतों का भी लोकेषणा व विषयेषणा के कारण पतन होते हुए देखा है| मेरे स्वयं के अनुभव भी हैं और पूर्वजन्म की कुछ स्पष्ट स्मृतियाँ भी हैं जिन्हें मैं किसी के साथ कभी साझा नहीं करता| एक बार एक पहुंचे हुए वयोवृद्ध विदेशी संत ने जो मुझे पिछले जन्म से जानते थे पहिचान भी लिया और बताया भी| पर मैंने तुरंत विषय बदल दिया, और आगे इस विषय पर बात नहीं होने दी|
मैं स्वयं के भी उत्थान, पतन और पुनश्च उत्थान व पतन का साक्षी हूँ| इस जन्म में अब और पतन न हो, मेरे आचरण, व्यवहार और विचारों में शुचिता बनी रहे, यही भगवान से प्रार्थना है|

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