मेरी पीड़ा का कारण और उस का समाधान .....
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मेरी पीड़ा का कारण मेरे अपने स्वयं के निज जीवन में व अपने परिवार, समाज, और राष्ट्र में चारों ओर व्याप्त असत्य रूपी घोर अंधकार है| यह बहुत अधिक पीड़ा दे रहा है| भगवान से प्रार्थना की तो अंतरात्मा से उत्तर मिला कि ..... "यह हमारे भीतर का ही अंधकार है जो बाहर व्यक्त हो रहा है| इसे दूर करने के लिए अपने 'लोभ' और 'अहंकार' से मुक्त होकर स्वयं के भीतर ही प्रकाश की वृद्धि करनी होगी, तभी बाहर का यह अन्धकार दूर होगा|"
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जहाँ तक अपनी अति अल्प और अति सीमित बुद्धि से मैं समझा हूँ, इसके लिए हमें आध्यात्मिक साधना द्वारा आत्मसाक्षात्कार कर स्वयं को ही ज्योतिर्मय बनना होगा| यही रामकाज है जिसके बिना कोई विश्राम नहीं हो सकता| हम स्वयं ज्योतिर्मय होंगे तो हमारा संसार भी ज्योतिर्मय होगा|
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गीता का सार उसके इस अंतिम श्लोक में है ...."यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम|" इसका अर्थ अपने आप में स्पष्ट है|
जब धनुर्धारी भगवान श्रीराम, सुदर्शन चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण, और पिनाकपाणी देवाधिदेव महादेव स्वयं हृदय में बिराजमान हैं तब कौन सी ऐसी बाधा है जो हम पार नहीं कर सकते? हमें अपने निज जीवन की बची खुची सारी ऊर्जा एकत्र कर के "प्रबिसि नगर कीजे सब काजा हृदयँ राखि कोसलपुर राजा" करना ही होगा| तभी "गरल सुधा रिपु करहिं मिताई गोपद सिंधु अनल सितलाई" होगी| सदा सफल हनुमान जी हमारे आदर्श हैं जो कभी विफल नहीं हुए| हनुमान जी का ध्येय वाक्य हैं .... "राम काज कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम|" यही हमारा भी ध्येय वाक्य होना चाहिए| हमारा जन्म ही इस रामकाज के लिये हुआ है| हनुमान जी निरंतर रामजी के काज में लगे हुए हैं बिना विश्राम किए| हमें भी उनका अनुशरण करना होगा ..... "राम काज करिबे को आतुर", तभी हम "रामचन्द्र के काज संवारे" कर सकते हैं|
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आध्यात्म मार्ग के पथिक को निरन्तर चलते ही रहना है| उसके लिए कोई विश्राम हो ही नहीं सकता| वह अनुकूलता की प्रतीक्षा नहीं कर सकता| अनुकूलता कभी नहीं आएगी| न तो समुद्र की लहरें कभी शांत होंगी और न नदियों की चंचलता ही कभी कम होगी| यह संसार जैसे चल रहा है वैसे ही प्रकृति के नियमानुसार चलता रहेगा, न कि हमारी इच्छानुसार| कौन क्या कहता है और क्या करता है, इसका कोई महत्व नहीं है| महत्व सिर्फ इसी बात का है कि हमारे समर्पण में कितनी पूर्णता हुई है| अपनी चरम सीमा तक का प्रयास हमें करना होगा|
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हरिः ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय ||
कृपा शंकर
झुंझुनू (राजस्थान)
१० फरवरी २०२०
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मेरी पीड़ा का कारण मेरे अपने स्वयं के निज जीवन में व अपने परिवार, समाज, और राष्ट्र में चारों ओर व्याप्त असत्य रूपी घोर अंधकार है| यह बहुत अधिक पीड़ा दे रहा है| भगवान से प्रार्थना की तो अंतरात्मा से उत्तर मिला कि ..... "यह हमारे भीतर का ही अंधकार है जो बाहर व्यक्त हो रहा है| इसे दूर करने के लिए अपने 'लोभ' और 'अहंकार' से मुक्त होकर स्वयं के भीतर ही प्रकाश की वृद्धि करनी होगी, तभी बाहर का यह अन्धकार दूर होगा|"
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जहाँ तक अपनी अति अल्प और अति सीमित बुद्धि से मैं समझा हूँ, इसके लिए हमें आध्यात्मिक साधना द्वारा आत्मसाक्षात्कार कर स्वयं को ही ज्योतिर्मय बनना होगा| यही रामकाज है जिसके बिना कोई विश्राम नहीं हो सकता| हम स्वयं ज्योतिर्मय होंगे तो हमारा संसार भी ज्योतिर्मय होगा|
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गीता का सार उसके इस अंतिम श्लोक में है ...."यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम|" इसका अर्थ अपने आप में स्पष्ट है|
जब धनुर्धारी भगवान श्रीराम, सुदर्शन चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण, और पिनाकपाणी देवाधिदेव महादेव स्वयं हृदय में बिराजमान हैं तब कौन सी ऐसी बाधा है जो हम पार नहीं कर सकते? हमें अपने निज जीवन की बची खुची सारी ऊर्जा एकत्र कर के "प्रबिसि नगर कीजे सब काजा हृदयँ राखि कोसलपुर राजा" करना ही होगा| तभी "गरल सुधा रिपु करहिं मिताई गोपद सिंधु अनल सितलाई" होगी| सदा सफल हनुमान जी हमारे आदर्श हैं जो कभी विफल नहीं हुए| हनुमान जी का ध्येय वाक्य हैं .... "राम काज कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम|" यही हमारा भी ध्येय वाक्य होना चाहिए| हमारा जन्म ही इस रामकाज के लिये हुआ है| हनुमान जी निरंतर रामजी के काज में लगे हुए हैं बिना विश्राम किए| हमें भी उनका अनुशरण करना होगा ..... "राम काज करिबे को आतुर", तभी हम "रामचन्द्र के काज संवारे" कर सकते हैं|
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आध्यात्म मार्ग के पथिक को निरन्तर चलते ही रहना है| उसके लिए कोई विश्राम हो ही नहीं सकता| वह अनुकूलता की प्रतीक्षा नहीं कर सकता| अनुकूलता कभी नहीं आएगी| न तो समुद्र की लहरें कभी शांत होंगी और न नदियों की चंचलता ही कभी कम होगी| यह संसार जैसे चल रहा है वैसे ही प्रकृति के नियमानुसार चलता रहेगा, न कि हमारी इच्छानुसार| कौन क्या कहता है और क्या करता है, इसका कोई महत्व नहीं है| महत्व सिर्फ इसी बात का है कि हमारे समर्पण में कितनी पूर्णता हुई है| अपनी चरम सीमा तक का प्रयास हमें करना होगा|
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हरिः ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय ||
कृपा शंकर
झुंझुनू (राजस्थान)
१० फरवरी २०२०
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