कुण्डलिनी महाशक्ति .......
मेरे ये शब्द प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध हैं अतः किसी को बुरा लगना भी स्वाभाविक है| कुछ बातों को समझाने के लिए प्रतीकों का सहारा लिया जाता है पर वे प्रतीक ही कालान्तर में रहस्यमय हो जाते हैं| फिर कोई कोई उन पर प्रकाश डालता है वह अपने शब्दों में आकर्षण लाने के लिए उसे और भी अधिक रहस्यमय बना देता है| ऐसा ही एक शब्द है ...'कुण्डलिनी'|
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इस शब्द को इतना अधिक रहस्यमय बना दिया गया है जब कि इसमें कोई रहस्य है ही नहीं| इसे समझना बड़ा सरल है| कोई भी साधक जो नियमित ध्यान साधना करता है वह प्रत्यक्ष अनुभूति से इसे तुरंत समझ जाता है| बिना ध्यान साधना के सिर्फ बौद्धिकता से इस विषय को समझना असंभव है|
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कुछ लोग अपनी मान्यताओं के विरुद्ध कोई बात सुनते ही भड़क जाते हैं और सीधे अभद्र भाषा का प्रयोग करने लगते हैं| ऐसा नहीं होना चाहिए| यह प्रस्तुति ऐसे लोगों के लिए नहीं है| मैं जो लिख रहा हूँ वह मेरा निजी अनुभव है| कोई क्या सोचता है यह उसकी अपनी समस्या है|
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सर्वप्रथम तो मैं यहाँ यह कहना चाहता हूँ कि कुण्डलिनी कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं है| यह प्रकृति या मूल प्रकृति भी नहीं है| इसे सिर्फ एक "कुण्डलिनी महाशक्ति" नाम दिया गया है जो मात्र प्रतीकात्मक है| वास्तव में यह सब तरह की शक्तियों से परे बिखरी हुई प्राण ऊर्जा का घनीभूत होकर आरोहण यानि ऊर्ध्वगमन मात्र है| जैसे जैसे इस घनीभूत प्राण ऊर्जा का आरोहण यानि ऊर्ध्वगमन होता है, वैसे वैसे चेतना का और समझ का स्तर बढ़ता जाता है| यह साधक की चेतना को अज्ञान क्षेत्र से ज्ञान क्षेत्र और उससे भी परे परा क्षेत्र में ले जाती है|
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हम कुण्डलिनी को अपने प्रयास मात्र से जागृत नहीं कर सकते, यह चेतना सिद्ध गुरु और परमात्मा के अनुग्रह से स्वयं जागृत होकर हमें ही जागृत करती है|
कुण्डलिनी से सम्बंधित सारी साधनाएँ शिष्य की पात्रता देखकर कोई श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु परमात्मा की इच्छा से कृपा कर के शिष्य को प्रदान करता है| किसी पुस्तक को पढ़कर या किसी से सुनकर इसकी साधना नहीं की जा सकती|
यह चेतना स्वयमेव प्रभुकृपा से ही जागृत होती है| 'क्रियायोग' व इस तरह की कुछ अन्य साधनाओं से चेतना ऊर्ध्वमुखी होती है|
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जब गुरु की आज्ञा से कोई साधक भ्रूमध्य पर दृष्टी स्थिर कर आज्ञा चक्र पर ध्यान करता है तब सूक्ष्म देह की बहिर्मुखी शक्तियाँ अंतर्मुखी होकर मेरुदंड के नीचे मूलाधार चक्र में प्रकट होती हैं इसकी अनुभूति प्रत्येक साधक को होती है| उसे लगता है जैसे कोई पीछे से ठोकर मार रहा है| पर इसमें कोई घबराने की बात नहीं है| यह कुण्डलिनी जागरण का एक side effect है| मुख्य लक्ष्य तो भक्ति है| कुण्डलिनी जागरण कोई लक्ष्य नहीं है|
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प्रभुकृपा से जैसे जैसे यह चेतना सुषुम्ना में ऊर्ध्वमुखी होकर ऊपर के चक्रों को पार करती है साधक की समझ भी विस्तृत होती जाती है| नीचे के तीन चक्रों को पार कर जब यह चेतना ह्रदय के पीछे अनाहत चक्र तक आती है तब विशुद्ध भक्ति जागृत होती है| जिसमें पूर्वजन्मों के अच्छे संस्कारों से विशुद्ध भक्ति है उसकी कुण्डलिनी पहिले से ही जागृत है|
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मूलाधार से आज्ञाचक्र तक का क्षेत्र अज्ञान क्षेत्र है| आज्ञाचक्र से सहस्त्रार तक ज्ञान क्षेत्र है, और उससे आगे परा क्षेत्र है| इससे अधिक यहाँ इस पोस्ट में लिखना एक भटकाव होगा|
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सार की बात यह है कि कुण्डलिनी जागरण कोई लक्ष्य नहीं है| हमारा लक्ष्य भक्ति द्वारा प्रभु की शरणागति और समर्पण है| जब यह कुण्डलिनी चेतना आज्ञा चक्र से ऊपर उठती है तब सिद्धियाँ भी प्राप्त होने लगती हैं जो साधक को परमात्मा से विमुख करती हैं| उस ओर ध्यान देना ही नहीं चाहिए| ध्येय ..... भक्ति द्वारा परमात्मा की शरणागति और समर्पण ही हैं अन्य कुछ भी नहीं|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
७ फरवरी २०१६
मेरे ये शब्द प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध हैं अतः किसी को बुरा लगना भी स्वाभाविक है| कुछ बातों को समझाने के लिए प्रतीकों का सहारा लिया जाता है पर वे प्रतीक ही कालान्तर में रहस्यमय हो जाते हैं| फिर कोई कोई उन पर प्रकाश डालता है वह अपने शब्दों में आकर्षण लाने के लिए उसे और भी अधिक रहस्यमय बना देता है| ऐसा ही एक शब्द है ...'कुण्डलिनी'|
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इस शब्द को इतना अधिक रहस्यमय बना दिया गया है जब कि इसमें कोई रहस्य है ही नहीं| इसे समझना बड़ा सरल है| कोई भी साधक जो नियमित ध्यान साधना करता है वह प्रत्यक्ष अनुभूति से इसे तुरंत समझ जाता है| बिना ध्यान साधना के सिर्फ बौद्धिकता से इस विषय को समझना असंभव है|
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कुछ लोग अपनी मान्यताओं के विरुद्ध कोई बात सुनते ही भड़क जाते हैं और सीधे अभद्र भाषा का प्रयोग करने लगते हैं| ऐसा नहीं होना चाहिए| यह प्रस्तुति ऐसे लोगों के लिए नहीं है| मैं जो लिख रहा हूँ वह मेरा निजी अनुभव है| कोई क्या सोचता है यह उसकी अपनी समस्या है|
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सर्वप्रथम तो मैं यहाँ यह कहना चाहता हूँ कि कुण्डलिनी कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं है| यह प्रकृति या मूल प्रकृति भी नहीं है| इसे सिर्फ एक "कुण्डलिनी महाशक्ति" नाम दिया गया है जो मात्र प्रतीकात्मक है| वास्तव में यह सब तरह की शक्तियों से परे बिखरी हुई प्राण ऊर्जा का घनीभूत होकर आरोहण यानि ऊर्ध्वगमन मात्र है| जैसे जैसे इस घनीभूत प्राण ऊर्जा का आरोहण यानि ऊर्ध्वगमन होता है, वैसे वैसे चेतना का और समझ का स्तर बढ़ता जाता है| यह साधक की चेतना को अज्ञान क्षेत्र से ज्ञान क्षेत्र और उससे भी परे परा क्षेत्र में ले जाती है|
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हम कुण्डलिनी को अपने प्रयास मात्र से जागृत नहीं कर सकते, यह चेतना सिद्ध गुरु और परमात्मा के अनुग्रह से स्वयं जागृत होकर हमें ही जागृत करती है|
कुण्डलिनी से सम्बंधित सारी साधनाएँ शिष्य की पात्रता देखकर कोई श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु परमात्मा की इच्छा से कृपा कर के शिष्य को प्रदान करता है| किसी पुस्तक को पढ़कर या किसी से सुनकर इसकी साधना नहीं की जा सकती|
यह चेतना स्वयमेव प्रभुकृपा से ही जागृत होती है| 'क्रियायोग' व इस तरह की कुछ अन्य साधनाओं से चेतना ऊर्ध्वमुखी होती है|
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जब गुरु की आज्ञा से कोई साधक भ्रूमध्य पर दृष्टी स्थिर कर आज्ञा चक्र पर ध्यान करता है तब सूक्ष्म देह की बहिर्मुखी शक्तियाँ अंतर्मुखी होकर मेरुदंड के नीचे मूलाधार चक्र में प्रकट होती हैं इसकी अनुभूति प्रत्येक साधक को होती है| उसे लगता है जैसे कोई पीछे से ठोकर मार रहा है| पर इसमें कोई घबराने की बात नहीं है| यह कुण्डलिनी जागरण का एक side effect है| मुख्य लक्ष्य तो भक्ति है| कुण्डलिनी जागरण कोई लक्ष्य नहीं है|
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प्रभुकृपा से जैसे जैसे यह चेतना सुषुम्ना में ऊर्ध्वमुखी होकर ऊपर के चक्रों को पार करती है साधक की समझ भी विस्तृत होती जाती है| नीचे के तीन चक्रों को पार कर जब यह चेतना ह्रदय के पीछे अनाहत चक्र तक आती है तब विशुद्ध भक्ति जागृत होती है| जिसमें पूर्वजन्मों के अच्छे संस्कारों से विशुद्ध भक्ति है उसकी कुण्डलिनी पहिले से ही जागृत है|
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मूलाधार से आज्ञाचक्र तक का क्षेत्र अज्ञान क्षेत्र है| आज्ञाचक्र से सहस्त्रार तक ज्ञान क्षेत्र है, और उससे आगे परा क्षेत्र है| इससे अधिक यहाँ इस पोस्ट में लिखना एक भटकाव होगा|
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सार की बात यह है कि कुण्डलिनी जागरण कोई लक्ष्य नहीं है| हमारा लक्ष्य भक्ति द्वारा प्रभु की शरणागति और समर्पण है| जब यह कुण्डलिनी चेतना आज्ञा चक्र से ऊपर उठती है तब सिद्धियाँ भी प्राप्त होने लगती हैं जो साधक को परमात्मा से विमुख करती हैं| उस ओर ध्यान देना ही नहीं चाहिए| ध्येय ..... भक्ति द्वारा परमात्मा की शरणागति और समर्पण ही हैं अन्य कुछ भी नहीं|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
७ फरवरी २०१६
Thanks
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