Tuesday, 9 January 2018

हं सः / सोSहं / ॐ ॐ ॐ ......

हं सः / सोSहं / ॐ ॐ ॐ ......
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निज चेतना को इस देह तक ही सीमित न रखकर सर्वव्यापी, असीम, अनन्त, पूर्ण, परब्रह्म, परमात्मा के साथ अपरिछिन्न बनाए रखने की निरंतर साधना हमें करते रहना चाहिए| यह साधना ही हमें सुखी बना सकती है, अन्यथा हम सदा दुखी ही रहेंगे| हम यह देह नहीं, परमात्मा की अपरिछिन्न अनंतता हैं| 'ख' यानि आकाश तत्व रूपी परमात्मा की विराटता के साथ एक होकर ही हम सुखी हैं, अन्यथा हम सदा दुःखी ही हैं| दुःख का अर्थ है ... 'ख' यानि आकाश तत्व रूपी परमात्मा की अनंतता से दूरी|
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परमात्मा की इस अनंतता से अपरिछिन्न होने की चेतना को श्रुति भगवती ने "भूमा" कहा है| सारा सुख जो है वह भूमा में ही है| सामवेद की कौमुथी शाखा का छान्दोग्योपनिषद यही उद्घोष करता है....
"यो वै भूमा तत्सुखम्"
(छान्दोग्योपनिषद् ७ / २३ / १)
इस भूमा तत्व से एक होने की साधना अजपाजप और ओंकार पर ध्यान है, जिसे किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से सीखनी चाहिए|
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"रहिमन कुआँ एक है, पनिहारी अनेक| बर्तन सब न्यारे भये जल घटियन में एक"|
माँ-बाप, भाई-बहिन, सगे-सम्बन्धी, मित्र, परिचित-अपरिचित सभी से प्राप्त प्रेम .... परमात्मा का ही प्रेम है जो हमें विभिन्न स्त्रोतों से प्राप्त हो रहा है| अन्य सब नश्वर हैं, सिर्फ परमात्मा ही शाश्वत हैं, अतः शाश्वत प्रेम के लिए हमें परमात्मा से ही जुड़ना होगा, न कि विभिन्न घटकों से| परिछिन्नता के भाव को त्यागना ही होगा|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जनवरी २०१८

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