ॐ श्रीगुरवे नमः ....
"ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं | द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् ||
एकं नित्यं विमलंचलं सर्वधीसाक्षीभूतम् | भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि ||"
"ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं | द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् ||
एकं नित्यं विमलंचलं सर्वधीसाक्षीभूतम् | भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि ||"
"गुरु" कोई देह नहीं हो सकती| उनकी देह तो एक वाहन है जिस पर वे यह लोकयात्रा करते हैं| देह का विग्रह तो एक प्रतीक मात्र है| देह तो समय के साथ नष्ट हो जाती है पर गुरु तो अमर हैं, वे परमात्मा के साथ एक हैं| वे सब प्रकार के आकार और देश-काल से परे हैं| जब तक वे देह पर आरूढ़ हैं तब तक तो वे देहरूप में हैं, पर वास्तव में वे देह नहीं, देहातीत हैं| जब तक उनसे पृथकता का बोध है तब तक तो उन की देह को ही गुरु मानना चाहिए पर जब कोई भेद नहीं रहे तब गुरु और शिष्य एक ही हैं| आध्यात्मिक दृष्टी से आत्म-तत्व ही गुरु है| गहराई से विचार करें तो गुरु, शिष्य और परमात्मा में कोई भेद नहीं है| सभी एक हैं|
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गुरु पूजा : ..... प्रतीकात्मक रूप से गुरु-पूजा उनकी चरण-पादुका की ही होती है, उनके विग्रह की नहीं| जो मेरे विचारों से असहमत हैं वे मुझे क्षमा करें, मेरे इस विचार के लिए कि गुरु के विग्रह की पूजा गलत है|
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गुरु का ध्यान : .... जब तक कूटस्थ का बोध नहीं होता तब तक गुरु के विग्रह का ही ध्यान करना चाहिए| पर जब ज्योतिर्मय कूटस्थ ब्रह्म और कूटस्थ अक्षर का बोध हो जाए तब से कूटस्थ ही गुरु है| उसी की ज्योतिर्मय अनंतता का ध्यान करना चाहिए| कूटस्थ ब्रह्म ही गुरु हैं, वे ही शिष्य हैं, वे ही परमात्मा हैं, वे ही उपासक हैं, वे ही उपास्य हैं और वे ही उपासना हैं| सहस्त्रार ही गुरु के चरण हैं, व सहस्त्रार में स्थिति ही गुरु चरणों में आश्रय है| गुरु के ध्यान में गुरु महाराज एक विराट ज्योति का रूप ले लेते हैं, जिसकी अनंतता में समस्त ब्रह्मांड समा जाता है, जिस से परे अन्य कुछ भी नहीं है| कहीं पर भी कोई पृथकता नहीं होती| वे ही सब कुछ हैं, कोई अन्य नहीं है| उस अनन्यता से एकाकार होकर ही हम कह सकते हैं ... "एकोहम् द्वितीयो नास्ति"| उस चेतना में ही कोई "शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि" का उद्घोष कर सकता है|
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गुरु को नमन : .... गीता में अर्जुन ने जिन शब्दों में नमन किया उन्हीं शब्दों में गुरु महाराज को मैं नमन करता हूँ ....
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
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हे परात्पर गुरु महाराज, आप ही सम्पूर्ण अस्तित्व हो, आप ही यह सारी अनंतता, व अनन्यता हो| यह सम्पूर्ण समष्टि आपका ही घनीभूत रूप है और आप ही यह "मैं" हूँ| आप ही इन हवाओं में बह रहे हो, आप ही इन झोंकों में मुस्करा रहे हो, आप ही इन सितारों में चमक रहे हो, आप ही हम सब के विचारों में नृत्य कर रहे हो, आप ही यह समस्त जीवन हो| हे परमात्मा, हे गुरु रूप परब्रह्म परमशिव, आपकी जय हो|
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम|
तस्मात कारुण्य भावेन रक्षस्व परमेश्वरः||
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ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०४ जनवरी २०१८
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गुरु पूजा : ..... प्रतीकात्मक रूप से गुरु-पूजा उनकी चरण-पादुका की ही होती है, उनके विग्रह की नहीं| जो मेरे विचारों से असहमत हैं वे मुझे क्षमा करें, मेरे इस विचार के लिए कि गुरु के विग्रह की पूजा गलत है|
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गुरु का ध्यान : .... जब तक कूटस्थ का बोध नहीं होता तब तक गुरु के विग्रह का ही ध्यान करना चाहिए| पर जब ज्योतिर्मय कूटस्थ ब्रह्म और कूटस्थ अक्षर का बोध हो जाए तब से कूटस्थ ही गुरु है| उसी की ज्योतिर्मय अनंतता का ध्यान करना चाहिए| कूटस्थ ब्रह्म ही गुरु हैं, वे ही शिष्य हैं, वे ही परमात्मा हैं, वे ही उपासक हैं, वे ही उपास्य हैं और वे ही उपासना हैं| सहस्त्रार ही गुरु के चरण हैं, व सहस्त्रार में स्थिति ही गुरु चरणों में आश्रय है| गुरु के ध्यान में गुरु महाराज एक विराट ज्योति का रूप ले लेते हैं, जिसकी अनंतता में समस्त ब्रह्मांड समा जाता है, जिस से परे अन्य कुछ भी नहीं है| कहीं पर भी कोई पृथकता नहीं होती| वे ही सब कुछ हैं, कोई अन्य नहीं है| उस अनन्यता से एकाकार होकर ही हम कह सकते हैं ... "एकोहम् द्वितीयो नास्ति"| उस चेतना में ही कोई "शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि" का उद्घोष कर सकता है|
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गुरु को नमन : .... गीता में अर्जुन ने जिन शब्दों में नमन किया उन्हीं शब्दों में गुरु महाराज को मैं नमन करता हूँ ....
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
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हे परात्पर गुरु महाराज, आप ही सम्पूर्ण अस्तित्व हो, आप ही यह सारी अनंतता, व अनन्यता हो| यह सम्पूर्ण समष्टि आपका ही घनीभूत रूप है और आप ही यह "मैं" हूँ| आप ही इन हवाओं में बह रहे हो, आप ही इन झोंकों में मुस्करा रहे हो, आप ही इन सितारों में चमक रहे हो, आप ही हम सब के विचारों में नृत्य कर रहे हो, आप ही यह समस्त जीवन हो| हे परमात्मा, हे गुरु रूप परब्रह्म परमशिव, आपकी जय हो|
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम|
तस्मात कारुण्य भावेन रक्षस्व परमेश्वरः||
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ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०४ जनवरी २०१८
परमहंस योगानंद (स्वामी योगानंद गिरी) का जन्म मुकुन्दलाल घोष के रूप में ५ जनवरी सन १८९३ ई को गोरखपुर (उत्तरप्रदेश) में हुआ| वे बीसवीं सदी के एक महान आध्यात्मिक गुरू, योगी और संत थे| वे आचार्य शंकर की परम्परा के सन्यासी थे| उनके गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरी ने उन्हें धर्म प्रचार हेतु सन १९२० ई में अमेरिका भेजा जहाँ वे जीवन भर रहे| संपूर्ण अमेरिका में उन्होंने अनेक यात्रायें कीं और अपना जीवन व्याख्यान देने, लेखन तथा निरन्तर अपने विश्व व्यापी कार्य को दिशा देने में लगाया| उनके उपदेश सभी में परमात्मा से प्रेम जागृत करते थे| उन्होंने अपने अनुयायियों को क्रिया योग नामक योग की एक विधि का उपदेश दिया तथा पूरे विश्व में उसका प्रचार प्रसार किया| वे प्रथम भारतीय गुरु थे जिन्होने अपने जीवन के कार्य को पश्चिम में किया| वह समय अति कठिन था, भारत पराधीन था और पूरे पश्चिमी जगत में भारत और सनातन हिन्दू धर्म को पादरियों ने अत्यधिक बदनाम कर रखा था| ऐसे समय में भारत से इतनी दूर ईसाई मतावलंबियों के मध्य में अकेले ही जाकर सफलतापूर्वक अपना कार्य करना एक चुनौतीपूर्ण और उच्चतम वीरता का था जो उन्होंने सफलता पूर्वक किया| ईश्वर की शक्ति सदा उनके साथ थी| उनकी लिखी आत्मकथा "Autobiography of a Yogi" के नाम से सन १९४८ ई में छपी जो एक उत्कृष्ट आध्यात्मिक कृति है जिस ने पूरे विश्व में लाखों जिज्ञासुओं को प्रभावित किया और प्रेरणा दी है| उस पुस्तक की लाखों प्रतियाँ अब तक बिक चुकी हैं और अनेक संस्करण अब तक प्रकाशित हो चुके हैं| विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में इस पुस्तक का अनुवाद हुआ है| अब भी यह विश्व की सबसे अधिक बिकने वाली लोकप्रिय पुस्तकों में से है|
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