हे हरि, यहाँ सिर्फ तुम ही हो .....
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मुझ में जो व्यक्त हो रहा है उस देवत्व को नमन ! मैं परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्ति हूँ | मेरे चारों ओर मंत्रमय प्रकाश रूपी एक दिव्य जीवंत कवच है जो सब प्रकार की नकारात्मकताओं से निरंतर रक्षा कर रहा है |
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हर विचार, हर भाव, एक पर्यटक की तरह मेरे पास आता है जिसका अतिथि की तरह स्वागत है, पर उसके निवास के लिए मेरे पास कोई स्थान नहीं है | वे आएँ, उनका स्वागत है, पर तुरंत बापस भी चले जाएँ | मेरा हृदय कोई धर्मशाला नहीं है | इसमें निवास सिर्फ परमात्मा का है |
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मैं निःसंग हूँ | किसी का साथ नहीं करता | मेरा जन्म-मरण का शाश्वत एकमात्र साथी परमात्मा है जो सदा निरंतर मेरे साथ है | उसे अन्य किसी का साथ पसंद नहीं है |
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यह जीवन एक स्वतन्त्रता संग्राम है | इस मायावी युद्ध में विजयी होना हम सब का परम कर्तव्य है | यहाँ योद्धा परमात्मा स्वयं हैं, यह युद्ध और शत्रु आदि सब उनकी ही माया है |
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उन्हीं की परम कृपा से यह सब दिखाई दे रहा है | वे ही इन आँखों से देख रहे हैं, वे ही इस दिमाग से सोच रहे हैं, वे ही ये पंक्तियाँ लिख रहे हैं| वे ही सर्वत्र हैं, उनके सिवाय किसी अन्य का अस्तित्व नहीं है | उन्हीं के वचन हैं ...
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति | तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||"
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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मुझ में जो व्यक्त हो रहा है उस देवत्व को नमन ! मैं परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्ति हूँ | मेरे चारों ओर मंत्रमय प्रकाश रूपी एक दिव्य जीवंत कवच है जो सब प्रकार की नकारात्मकताओं से निरंतर रक्षा कर रहा है |
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हर विचार, हर भाव, एक पर्यटक की तरह मेरे पास आता है जिसका अतिथि की तरह स्वागत है, पर उसके निवास के लिए मेरे पास कोई स्थान नहीं है | वे आएँ, उनका स्वागत है, पर तुरंत बापस भी चले जाएँ | मेरा हृदय कोई धर्मशाला नहीं है | इसमें निवास सिर्फ परमात्मा का है |
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मैं निःसंग हूँ | किसी का साथ नहीं करता | मेरा जन्म-मरण का शाश्वत एकमात्र साथी परमात्मा है जो सदा निरंतर मेरे साथ है | उसे अन्य किसी का साथ पसंद नहीं है |
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यह जीवन एक स्वतन्त्रता संग्राम है | इस मायावी युद्ध में विजयी होना हम सब का परम कर्तव्य है | यहाँ योद्धा परमात्मा स्वयं हैं, यह युद्ध और शत्रु आदि सब उनकी ही माया है |
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उन्हीं की परम कृपा से यह सब दिखाई दे रहा है | वे ही इन आँखों से देख रहे हैं, वे ही इस दिमाग से सोच रहे हैं, वे ही ये पंक्तियाँ लिख रहे हैं| वे ही सर्वत्र हैं, उनके सिवाय किसी अन्य का अस्तित्व नहीं है | उन्हीं के वचन हैं ...
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति | तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||"
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कर्तापन का अभिमान सबसे बड़ा पाप है .....
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मैंने इतने दान-पुण्य किये, मैनें इतने परोपकार के कार्य किये, मैनें इतनी साधना की, इतने जप-तप किए, मैं इतना बड़ा भक्त हूँ, मैं इतना बड़ा साधक हूँ, मेरे जैसा धर्मात्मा कोई नहीं है ...... ऐसे भाव सबसे बड़े पापकर्म हैं| जिस कर्म से अहंकार बढे, वह पापकर्म है, संसार चाहे कुछ भी कहे|
जिससे अहंकार की निवृति हो .... वही पुण्य है|
कृपा शंकर
08 August 2014