Wednesday, 9 August 2017

क्या श्रावणी उपाकर्म और रक्षाबंधन का सम्बन्ध हयग्रीवावतार से है ? ...

क्या प्राचीन काल से चले आ रहे श्रावणी उपाकर्म और वर्तमान में रक्षाबंधन का सम्बन्ध भगवान् विष्णु के हयग्रीवावतार से है ? विद्वानों से प्रार्थना है कि प्रामाणिक ज्ञान प्रदान करें |
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जैसा कि बड़े-बूढों से सुनते आये हैं उसके अनुसार एक कालखंड में वेदों का ज्ञान लुप्त हो गया था| ब्रह्मा जी भी वेदों को भूल गए थे| तब भगवान विष्णु ने हयग्रीव का अवतार लेकर वेदों का ज्ञान ब्रह्मा जी को पुनश्चः प्रदान किया| उस दिन श्रावण माह की पूर्णिमा थी| तब से श्रावणी उपाकर्म ब्राह्मण वर्ण के लोग मनाते आये हैं, जिसमें यज्ञोपवीत बदला जाता है|
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उपरोक्त विषय पर पौराणिक कथा इस प्रकार है ......
एक समय की बात है क‌ि भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी बैकुण्ठ में विराजमान थे| उस समय देवी लक्ष्मी के सुंदर रूप को देखकर भगवान विष्णु मुस्कुराने लगे| देवी लक्ष्मी को ऐसा लगा कि विष्णु भगवान उनके सौन्दर्य की हँसी उड़ा रहे हैं| देवी ने इसे अपना अपमान समझ लिया और ब‌िना सोचे भगवान विष्णु को शाप दे दिया कि आपका सिर धड़ से अलग हो जाए|
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उसी समय के आसपास की बात है| हयग्रीव नाम का एक परम पराक्रमी दैत्य हुआ| उसने सरस्वती नदी के तट पर जाकर भगवती महामाया की प्रसन्नता के लिए बड़ी कठोर तपस्या की| वह बहुत दिनों तक बिना कुछ खाए भगवती के मायाबीज एकाक्षर महामंत्र का जाप करता रहा| उसकी इंद्रियां उसके वश में हो चुकी थीं| सभी भोगों का उसने त्याग कर दिया था| उसकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती ने उसे तामसी शक्ति के रूप में दर्शन दिया| भगवती महामाया ने उससे कहा .... ‘‘महाभाग! तुम्हारी तपस्या सफल हुई, मैं तुम पर परम प्रसन्न हूँ| तुम्हारी जो भी इच्छा हो मैं उसे पूर्ण करने के लिए तैयार हूँ| वत्स! वर माँगो|’’
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भगवती की दया और प्रेम से ओत-प्रोत वाणी सुनकर हयग्रीव की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा| उसके नेत्र आनंद के अश्रुओं से भर गए| उसने भगवती की स्तुति करते हुए कहा .... ‘‘कल्याणमयी देवि, आपको नमस्कार है| आप महामाया हैं| सृष्टि, स्थिति और संहार करना आपका स्वाभाविक गुण है| आपकी कृपा से कुछ भी असंभव नहीं है| यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अमर होने का वरदान देने की कृपा करें|’’
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देवी ने कहा, ‘‘दैत्य राज, संसार में जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है| प्रकृति के इस विधान से कोई नहीं बच सकता| किसी का सदा के लिए अमर होना असंभव है| अमर देवताओं को भी पुण्य समाप्त होने पर मृत्यु लोक में जाना पड़ता है| अत: तुम अमरत्व के अतिरिक्त कोई और वर माँगो|"
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हयग्रीव बोला, ‘‘अच्छा, तो हयग्रीव के हाथों ही मेरी मृत्यु हो| दूसरे मुझे न मार सकें| मेरे मन की यही अभिलाषा है| आप उसे पूर्ण करने की कृपा करें|’’
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"ऐसा ही हो", यह कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गईं| हयग्रीव असीम आनंद का अनुभव करते हुए अपने घर चला गया| वह दुष्ट देवी के वर के प्रभाव से अजेय हो गया| त्रिलोकी में कोई भी ऐसा नहीं था, जो उस दुष्ट को मार सके| उसने ब्रह्मा जी से वेदों को छीन लिया और देवताओं तथा मुनियों को सताने लगा| यज्ञादि कर्म बंद हो गए और सृष्टि की व्यवस्था बिगडऩे लगी| ब्रह्मादि देवता भगवान विष्णु के पास गए, किन्तु वे योगनिद्रा में निमग्र थे| उनके धनुष की डोरी चढ़ी हुई थी| ब्रह्मा जी ने उनको जगाने के लिए वम्री नामक एक कीड़ा उत्पन्न किया| ब्रह्मा जी की प्रेरणा से उसने धनुष की प्रत्यंचा काट दी| उस समय बड़ा भयंकर शब्द हुआ और भगवान विष्णु का मस्तक कटकर अदृश्य हो गया| सिर रहित भगवान के धड़ को देखकर देवताओं के दुख की सीमा न रही| सभी लोगों ने इस विचित्र घटना को देखकर भगवती की स्तुति की| भगवती प्रकट हुई| उन्होंने कहा, ‘‘देवताओ चिंता मत करो| मेरी कृपा से तुम्हारा मंगल ही होगा| ब्रह्मा जी एक घोड़े का मस्तक काटकर भगवान के धड़ से जोड़ दें| इससे भगवान का हयग्रीवावतार होगा| वे उसी रूप में दुष्ट हयग्रीव दैत्य का वध करेंगे|’’ ऐसा कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गई।
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भगवती के कथनानुसार उसी क्षण ब्रह्मा जी ने एक घोड़े का मस्तक उतारकर भगवान के धड़ से जोड़ दिया| भगवती के कृपा प्रसाद से उसी क्षण भगवान विष्णु का हयग्रीवावतार हो गया| फिर भगवान का हयग्रीव दैत्य से भयानक युद्ध हुआ| अंत में भगवान के हाथों हयग्रीव की मृत्यु हुई| हयग्रीव को मारकर भगवान ने वेदों को ब्रह्मा जी को पुन: समर्पित कर दिया और देवताओं तथा मुनियों का संकट निवारण किया| हयग्रीव भगवान विष्णु के चौदह अवतारों में से एक थे| इनका सिर घोड़े का और शरीर मनुष्य का था|
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हयग्रीव की कथा महाभारत के शान्ति पर्व के अनुसार यह है ....
कल्पान्त में जब यह पृथ्वी जलमग्न हो गयी तब विष्णु को पुन: जगत सर्जन का विचार हुआ| वह जगत की विविध विचित्र रचना का विषय सोचते हुए योगनिद्रा का अवलम्बन कर जल में सो रहे थे| कुछ समय के पश्चात भगवान ने कमल मध्य दो जलबिन्दु देखे| एक बिन्दु से मधु और दूसरे से कैटभ की उत्पत्ति हुई| उत्पन्न होते ही दैत्यों ने कमल के मध्य ब्रह्मा को देखा| दोनों सनातन वेदों को ले रसातल में चले गये| वेदों का अपहरण होने पर ब्रह्मा चिन्तित हुए कि वेद ही मेरे चक्षु हैं जिन के अभाव में लोकसृष्टि कैसे कर सकूँगा| उन्होंने वेदोद्धार के लिए भगवान विष्णु की स्तुति की| स्तुति सुन भगवान ने हयग्रीव की मूर्ति धारण कर वेदों का उद्धार किया|
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अब विद्वान् मनीषी प्रामाणिक ज्ञान प्रदान करें| साभार धन्यवाद !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

4 comments:

  1. Arun Upadhyay's comment.

    उपाकर्म= उप+आ+कृ करणे + मनिन्। जिस काम द्वारा वर्षा के अन्त में पुनः वेद का अध्ययन आरम्भ होता है, उसे उपाकर्म कहते हैं। पहले वर्षा से सम्वत्सर आरम्भ होता था, अतः उसे वर्ष कहते थे। यह कार्त्तिकेय के पंचांग में है। महाभारत वन पर्व (२३०/८-१०) के अनुसार कार्त्तिकेय के समय अभिजित् का पतन हुआ था, अर्थात् पृथ्वी के अक्ष की उत्तरी दिशा अभिजित् नक्षत्र से दूर हट गई थी (प्रायः १६,००० ई.पू. में)। उस समय धनिष्ठा से वर्ष का आरम्भ हुआ। १५८०० ई.पू. में धनिष्ठा से वर्षा (दक्षिणायन) का आरम्भ होता था। एक वर्षा क्रम के भूभाग को भी वर्ष कहते हैं, जैसे भारतवर्ष। अतः वेद के अध्यापन का सत्र श्रावण मास से आरम्भ होता था। आश्वलायन गृह्य सूत्र (१०/४) के अनुसार इस समय अश्व लाकर आलभन करते थे। सामान्यतः शिष्य या अश्व के आलभन का अर्थ उसकी बलि कहा गया है। पर यदि शिष्य की बलि होगी तो शिक्षा किसे देंगे? श्रावण मास के पूर्णिमा दिन यह होता है जब चन्द्र श्रवण नक्षत्र में रहता है, इसी लिये इस मास का नाम श्रावण है। अतः अध्ययन सत्र आरम्भ करने को श्रावणी भी कहते हैं। आज भी मिथिला में श्रावण मास से ही वर्ष का आरम्भ होता है।

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  2. आचार्य सियारामदास नैयायिक's comment. Aug 07, 2017 10:09am

    येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: । तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।--इस प्रसिद्ध मन्त्र के प्रमाण से इस रक्षाबन्धन का सम्बन्ध महाराज बलि से स्पष्ट होता है । श्रावणी उपाकर्म विशेषकर विप्रों का है । इसमें भगवान हयग्रीव का पूजन विहित नहीं है । और रक्षाबन्धन कर्म में भी यही स्थिति है । किन्तु भगवान् हयग्रीव का अवतार वेदों की रक्षा के लिए इसी तिथि को हुआ । जिससे इन दोनों पर्वों में चार चाँद लग गये । यज्ञोपवीत के विना वेदों की रक्षा असम्भव है । रक्षाबन्धन से सुरक्षित होकर प्राणी वर्णाश्रमानुमोदित वेदोक्त कर्मों से मोक्ष तक प्राप्त कर सकता है । इसलिए इन पर्वों का महत्त्व कोटि गुणा बढ़ गया । यदि भगवान् हयग्रीव को इनसे सम्बद्ध कर दिया जाय अर्थात् उनका स्मरण पूजन किया जाय तो इस महत्त्व का यथावत् लाभ लिया जा सकता है । अत: आज भगवान् हयग्रीव का स्मरण अत्यावश्यक है । भगवान् हयग्रीवो विजयतेतराम् । जय श्रीराम। #आचार्यसियारामदासनैयायिक

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  3. (वैदिक विद्वान् श्री अरुण उपाध्याय जी के अनुसार जिस कर्म के द्वारा वर्षा के अन्त में पुनः वेद का अध्ययन आरम्भ होता है, उसे उपाकर्म कहते हैं| वेद के अध्यापन का सत्र श्रावण मास से आरम्भ होता है| श्रावण मास के पूर्णिमा के दिन यह होता है जब चन्द्र श्रवण नक्षत्र में रहता है, इसी लिये इस मास का नाम श्रावण है| वेदाध्ययन सत्र आरम्भ करने को श्रावणी कहते हैं|)

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  4. (१) सभी ब्राह्मणों को उनके प्रधानपर्व .... "श्रावणी उपाकर्म" पर अभिनन्दन !
    (ब्राह्मणों द्वारा श्रावणी उपाकर्म करने से उनका ब्रह्मतेज निरन्तर बना रहता है)

    (२) सभी मातृशक्ति को रक्षाबंधन पर शुभ कामनाएँ | हम उनको उनकी रक्षा का वचन देते हैं| जब तक तन में प्राण है, तब तक हम आपकी रक्षा करेंगे|

    (३) परम पवित्र भगवा ध्वज पर रक्षा सूत्र बांधकर राष्ट्र रक्षा और धर्म रक्षा का अपना संकल्प दोहराते हैं|

    हर हर महादेव ! जय श्रीराम ! भारत माता की जय | ॐ ॐ ॐ ||

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