माता-पिता प्रत्यक्ष देवता हैं .......
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एक बार भगवान शिव और माँ पार्वती ने अपने दोनों पुत्रों कार्तिकेय जी और गणेशजी के समक्ष ब्रह्मांड का चक्कर लगाने की प्रतियोगिता रखी कि दोनों में से कौन पहले ब्रह्मांड का चक्कर लगाता है| गणेश जी और कार्तिकेय जी दोनों एक साथ रवाना हुए| कार्तिकेय जी का वाहन था मोर जबकि गणेश जी का मूषक| कार्तिकेय जी क्षण भर में मोर पर बैठकर आँखों से ओझल हो गए जबकि गणेश जी अपनी सवारी पर धीरे-धीरे चलने लगे| थोड़ी देर में गणेशजी बापस लौट आए और माता-पिता से क्षमा माँगी और उनकी तीन बार परिक्रमा कर कहा कि लीजिए मैंने आपका काम कर दिया| दोनों गद्गद् हो गए और पुत्र गणेश की बात से सहमत भी हुए| गणेश जी का कहना था कि माता-पिता के चरणों में ही संपूर्ण ब्रह्मांड होता है|
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माता पिता दोनों ही प्रथम परमात्मा हैं| पिता ही शिव हैं और माँ जगन्माता है| माता पिता दोनों मिलकर शिव और शिवानी यानि अर्धनारीश्वर के रूप हैं| किसी भी परिस्थिति में उनका अपमान नहीं होना चाहिए| उनका सम्मान परमात्मा का सम्मान है| यदि उनका आचरण धर्म-विरुद्ध और सन्मार्ग में बाधक है तो भी वे पूजनीय हैं| ऐसी परिस्थिति में हम उनकी बात मानने को बाध्य नहीं हैं पर उन्हें अपमानित करने का अधिकार हमें नहीं है| हम उनका भूल से भी अपमान नहीं करें| उनका पूर्ण सम्मान करना हमारा परम धर्म है|
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श्रुति भी कहती है ..... मातृदेवो भव, पितृदेवो भव| माता पिता के समान गुरु नहीं होते| माता-पिता प्रत्यक्ष देवता हैं| यदि हम उनकी उपेक्षा करके अन्य किसी भी देवी देवता की उपासना करते हैं तो हमारी साधना सफल नहीं हो सकती| कोई भी ऐसा महान व्यक्ति आज तक नहीं हुआ जिसने अपने माता-पिता की सेवा नहीं की हो| श्री और श्रीपति, शिव और शक्ति .... वे ही इस स्थूल जगत में माता-पिता के रूप में प्रकट होते हैं| उनके अपमान से भयंकर पितृदोष लगता है| पितृदोष जिन को होता है, या तो उनका वंश नहीं चलता या उनके वंश में अच्छी आत्माएं जन्म नहीं लेती| पितृदोष से घर में सुख शांति नहीं होती और कलह बनी रहती है| आज के समय अधिकांश परिवार पितृदोष से दु:खी हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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एक बार भगवान शिव और माँ पार्वती ने अपने दोनों पुत्रों कार्तिकेय जी और गणेशजी के समक्ष ब्रह्मांड का चक्कर लगाने की प्रतियोगिता रखी कि दोनों में से कौन पहले ब्रह्मांड का चक्कर लगाता है| गणेश जी और कार्तिकेय जी दोनों एक साथ रवाना हुए| कार्तिकेय जी का वाहन था मोर जबकि गणेश जी का मूषक| कार्तिकेय जी क्षण भर में मोर पर बैठकर आँखों से ओझल हो गए जबकि गणेश जी अपनी सवारी पर धीरे-धीरे चलने लगे| थोड़ी देर में गणेशजी बापस लौट आए और माता-पिता से क्षमा माँगी और उनकी तीन बार परिक्रमा कर कहा कि लीजिए मैंने आपका काम कर दिया| दोनों गद्गद् हो गए और पुत्र गणेश की बात से सहमत भी हुए| गणेश जी का कहना था कि माता-पिता के चरणों में ही संपूर्ण ब्रह्मांड होता है|
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माता पिता दोनों ही प्रथम परमात्मा हैं| पिता ही शिव हैं और माँ जगन्माता है| माता पिता दोनों मिलकर शिव और शिवानी यानि अर्धनारीश्वर के रूप हैं| किसी भी परिस्थिति में उनका अपमान नहीं होना चाहिए| उनका सम्मान परमात्मा का सम्मान है| यदि उनका आचरण धर्म-विरुद्ध और सन्मार्ग में बाधक है तो भी वे पूजनीय हैं| ऐसी परिस्थिति में हम उनकी बात मानने को बाध्य नहीं हैं पर उन्हें अपमानित करने का अधिकार हमें नहीं है| हम उनका भूल से भी अपमान नहीं करें| उनका पूर्ण सम्मान करना हमारा परम धर्म है|
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श्रुति भी कहती है ..... मातृदेवो भव, पितृदेवो भव| माता पिता के समान गुरु नहीं होते| माता-पिता प्रत्यक्ष देवता हैं| यदि हम उनकी उपेक्षा करके अन्य किसी भी देवी देवता की उपासना करते हैं तो हमारी साधना सफल नहीं हो सकती| कोई भी ऐसा महान व्यक्ति आज तक नहीं हुआ जिसने अपने माता-पिता की सेवा नहीं की हो| श्री और श्रीपति, शिव और शक्ति .... वे ही इस स्थूल जगत में माता-पिता के रूप में प्रकट होते हैं| उनके अपमान से भयंकर पितृदोष लगता है| पितृदोष जिन को होता है, या तो उनका वंश नहीं चलता या उनके वंश में अच्छी आत्माएं जन्म नहीं लेती| पितृदोष से घर में सुख शांति नहीं होती और कलह बनी रहती है| आज के समय अधिकांश परिवार पितृदोष से दु:खी हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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