Tuesday, 4 November 2025

बिना श्रद्धा के की गई कोई भी साधना निष्फल होती है ---

 बिना श्रद्धा के की गई कोई भी साधना निष्फल होती है। वह समय को नष्ट करना है। हमारी श्रद्धा सात्विक है या राजसिक या तामसिक, इनके भी अलग-अलग फल है। श्रीमद्भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय "श्रद्धात्रय विभाग योग" में इसका स्पष्ट निर्देश है। जिस साधना में श्रद्धा नहीं है वह भूल कर भी नहीं करनी चाहिए। उससे कुछ भी नहीं मिलेगा। परमात्मा (और जगन्माता) के जिस भी रूप में आपकी श्रद्धा है, उसी की साधना करनी चाहिए। गीता के अनुसार जो यज्ञ, दान, तप और कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाता है, वह 'असत्' कहा जाता है; वह न तो इस लोक में, और न ही मृत्यु के पश्चात (उस लोक में) लाभदायक होता है।

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जिन का उपनयन संस्कार हो चुका है, उन द्विजों को गायत्री जप, प्राणायाम और सविता देव की भर्गः ज्योति का ध्यान नित्य नियमित पूर्ण श्रद्धा सहित करना चाहिए। तत्पश्चात वे किसी उद्देश्य विशेष के लिए इस के साथ साथ अन्य साधना भी कर सकते हैं।
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गीता के अनुसार परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ नाम --"ॐ-तत्-सत्" है। ऊँ, तत् और सत् -- इन तीनों नामों से जिस परमात्मा का निर्देश किया गया है, उसी परमात्मा ने सृष्टि के आदि में वेदों, ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना की है। वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले श्रद्धालुओं की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा -- "ऊँ" --- इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं। गीता के सत्रहवें अध्याय में इसका स्पष्ट निर्देश है। (गीता के आठवें अध्याय के अनुसार तो हर समय निरंतर हमें मूर्धा में ओंकार का जप करते रहना चाहिये)। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
११ अक्तूबर २०२५

जिन की वेदान्त में रुचि है वे स्वामी रामतीर्थ के उपलब्ध साहित्य को अवश्य पढ़ें ---

 लगभग पच्चीस-तीस वर्षों पूर्व वेदान्त के शिखर पुरुष स्वामी रामतीर्थ के लेखों का संग्रह "In woods of God-realization" (आठ खंडों में) पढ़ा था। उस समय मेरी सम्पूर्ण चेतना में वेदान्त ही वेदान्त छा गया था। स्वामी रामतीर्थ के सारे प्रवचन १८वीं शताब्दी में बोली जाने वाली अङ्ग्रेज़ी भाषा में ही उपलब्ध हैं, जिनका संकलन उनके मित्र सरदार पूरण सिंह ने किया था। बाद में लखनऊ के स्वामी रामतीर्थ प्रतिष्ठान ने उनका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध करवाया था, जो सौलह छोटी पुस्तकों के रूप में उपलब्ध था। अपने स्वयं के हाथों से लिखे गए साहित्य को तो उन्होंने अमेरिका से बापस आते समय समुद्र में, और उत्तराखंड में स्वयं के हाथों से लिखे गए साहित्य को गंगा जी में प्रवाहित कर दिया था। उनका जो भी साहित्य उपलब्ध है वह उनके मित्रों द्वारा संग्रहित है।

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दीपावली आने वाली है। दीपावली के दिन ही वे पंजाब में (अब पाकिस्तान का भाग) अवतृत हुए थे और दीपावली के दिन ही उन्होने उत्तराखंड में गंगा जी में जीवित समाधि ले ली थी।
अमेरिका जाने से पूर्व वे लाहौर विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर थे।
वे पहले और अंतिम ऐसे गैर मुसलमान थे जिन्हें Cairo (Egypt) की मुख्य मस्जिद में प्रवचन देने के लिये निमंत्रित किया गया था। वहाँ फारसी भाषा में उन्होंने वेदान्त पर अपना बहुत प्रसिद्ध भाषण दिया था जो पुस्तक रूप में भी छपा था। भारत में भी वह उपलब्ध था। अब पता नहीं।
जिन की वेदान्त में रुचि है वे स्वामी रामतीर्थ के उपलब्ध साहित्य को अवश्य पढ़ें। धन्यवाद॥

भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति परमात्मा को कभी भी किसी भी परिस्थिति में प्राप्त नहीं कर सकता ---

 भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति परमात्मा को कभी भी किसी भी परिस्थिति में प्राप्त नहीं कर सकता ---

(प्रश्न १) कोई व्यक्ति जो अपने परिवार, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ रहता है, क्या सत्य यानि ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है?
(प्रश्न २) ऐसी क्या मजबूरी थी जो मुझे इस संसार में जन्म लेना पड़ा?
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विभिन्न देहों में मेरे ही प्रियतम निजात्मन, मुझे उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर मिल चुका है जो आपके साथ साझा कर रहा हूँ। ये अति गहन प्रश्न हैं लेकिन उनका उत्तर मेरे दृष्टिकोण से बड़ा ही सरल है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह बात है कि भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति ईश्वर को कभी भी किसी भी परिस्थिति में प्राप्त नहीं कर सकता।
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विवाह या किसी opposite sex का साथ हानिकारक नहीं होता है, लेकिन उसमें नाम रूप में आसक्ति आ जाये कि मैं यह शरीर हूँ, मेरा साथी भी शरीर है, तब दुर्बलता आ जाती है, और इस से अपकार ही होता है। वैवाहिक संबंधों में शारीरिक सुख की अनुभूति से ऊपर ही उठना होगा। सुख और आनंद किसी के शरीर में नहीं हैं। यह एक अवस्था है। यह अपने अपने दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि हमारा वैवाहिक जीवन कैसा हो। इसमें सुकरात, संत तुकाराम व संत नामदेव आदि के उदाहरण विस्तार भय से यहाँ नहीं दे रहा।
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हम ईश्वर की ओर अपने स्वयं की बजाय अनेक आत्माओं को भी साथ लेकर चल सकते हैं। ये सारे के सारे आत्मन हमारे ही हैं। परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने से पूर्व हम अपनी चेतना में अपनी पत्नी, बच्चों और आत्मजों के साथ एकता स्थापित करें। यदि हम उनके साथ अभेदता स्थापित नहीं कर सकते तो सर्वस्व (परमात्मा) के साथ भी अपनी अभेदता स्थापित नहीं कर सकते।
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क्रिया और प्रतिक्रया समान और विपरीत होती है। यदि मैं आपको प्यार करता हूँ तो आप भी मुझसे प्यार करेंगे। जिनके साथ आप एकात्म होंगे तो वे भी आपके साथ एकात्म होंगे ही। आप उनमें परमात्मा के दर्शन करेंगे तो वे भी आप में परमात्मा के दर्शन करने को बाध्य हैं।
पत्नी को पत्नी के रूप में त्याग दीजिये, आत्मजों को आत्मजों के रूप में त्याग दीजिये, और मित्रों को मित्र के रूप में देखना त्याग दीजिये। उनमें आप परमात्मा का साक्षात्कार कीजिये। स्वार्थमय और व्यक्तिगत संबंधों को त्याग दीजिये और सभी में परमात्मा को देखिये। आप की साधना उनकी भी साधना है। आप का ध्यान उन का भी ध्यान है। आप उन्हें ईश्वर के रूप में स्वीकार कीजिये।
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और भी सरल शब्दों में सार की बात यह है की पत्नी को अपने पति में परमात्मा के दर्शन करने चाहियें, और पति को अपनी पत्नी में अन्नपूर्णा जगन्माता के। उन्हें एक दुसरे को वैसा ही प्यार करना चाहिए जैसा वे परमात्मा को करते हैं। और एक दुसरे का प्यार भी परमात्मा के रूप में ही स्वीकार करना चाहिए। वैसा ही अन्य आत्मजों व मित्रों के साथ होना चाहिये। इस तरह आप अपने जीवित प्रिय जनों का ही नहीं बल्कि दिवंगत प्रियात्माओं का भी उद्धार कर सकते हैं। अपने प्रेम को सर्वव्यापी बनाइये, उसे सीमित मत कीजिये।
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आप में उपरोक्त भाव होगा तो आप के यहाँ महापुरुषों का जन्म संतान रूप में होगा। यही एकमात्र मार्ग है जिस से आप अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ परमात्मा का साक्षात्कार कर सकते है, अपने सहयोगी को भी उसी प्रकार लेकर चल सकते है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है। ईश्वर की प्रेरणा से ही मैं यह सब यह लिख पाया हूँ।
आप सब विभिन्न देहों में मेरी ही निजात्मा हैं, मैं आप सब को प्रेम करता हूँ और सब में मेरे प्रभु का दर्शन करता हूँ। आप सब को प्रणाम। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१३ अक्टूबर २०२५

हमारे मन में छिपी विषयासक्ति ही हमारे सारे संतापों का कारण है ---

हमारे मन में छिपी विषयासक्ति ही हमारे सारे संतापों का कारण है। इसके निवारण के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में दो उपाय बतलाए हैं -- अभ्यास और वैराग्य। विवेक विचार से उत्पन्न हुआ स्वभाविक वैराग्य हमें परमात्मा की ओर ले जाता है, और निराशा व दुःख से उत्पन्न हुआ वैराग्य हमें बापस संसार में ले आता है। अतः अभ्यास करते रहें। दुःख से उत्पन्न हुए वैराग्य की ओर ध्यान न दें। अपना मन केवल भगवान में ही लगायें। आगे के सारे द्वार खुल जायेंगे। निःस्पृह होना भी वैराग्य है।

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वैराग्य उत्पन्न हो तो किसी भी तरह का दिखावा न करें और न बिना सोच विचार के कोई निर्णय लें। भावुकता एक धोखा है, भावुकता से बचें। अपने पास क्या साधन हैं, और हम उनका क्या सदुपयोग कर सकते हैं इस पर विचार अवश्य करें। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
१४ अक्तूबर २०२५

"हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम !!" ---

 "हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम !!" ---

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उथल-पुथल भरे इस वर्तमान समय की सबसे बड़ी व्यक्तिगत समस्या भगवान के प्रति परम प्रेम को बनाये रखना है। सारा वातावरण ही विपरीत है, लेकिन इसमें हिम्मत नहीं हारनी है। कुछ दिन एकांत में ही रहना पड़े तो भी स्वीकार है।
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हमारे जीवन का मुख्य लक्ष्य भगवत्-प्राप्ति यानि परमात्मा का साक्षात्कार करना है। ध्यान-मुद्रा में ध्यान के आसन पर बैठकर दृष्टिपथ भ्रूमध्य में स्थिर कर के प्रत्येक आती हुई सांस के साथ अपनी ज्योतिर्मय चेतना का विस्तार सम्पूर्ण सृष्टि के अनंत विस्तार में करते रहें। सारी सृष्टि आप में, और आप सारी सृष्टि में है। वास्तव में आप नहीं, स्वयं भगवान श्रीहरिः ही यह साधना कर रहे हैं। आप को तो उनमें पूर्णतः समर्पित होना है। एकमात्र अस्तित्व उन्हीं का है। अपने भौतिक शरीर को भूल जाइये। ध्यान केवल सर्वव्यापी भगवान श्रीहरिः का ही हो। आप यह भौतिक शरीर नहीं, भगवान श्रीहरिः के साथ एक हैं, जो यह सारी सृष्टि बन गये हैं। पूर्ण या अर्ध खेचरी मुद्रा में बैठकर श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय में बताई हुई विधि से मूर्धा में प्रणव का जप करते रहें। जिस दिन भगवान की परम कृपा से श्रीमद्भगवद्गीता का पंद्रहवाँ अध्याय पुरुषोत्तम योग समझ में आ जायेगा (यह निज बुद्धि से कभी भी समझ में नहीं आयेगा) उस दिन यह मान लेना कि आप सही मार्ग पर अग्रसर हैं। तब जैसे पृथ्वी चंद्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है, वैसे ही आप भी सभी को साथ लेकर परमात्मा के मार्ग पर अग्रसर होंगे। आप यह भौतिक शरीर नहीं, स्वयं परमात्मा की अनंत चेतना हैं। मंगलमय शुभ कामनाएँ। आपका जीवन कृतार्थ और कृतकृत्य हो। हरिः ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
१५ अक्तूबर २०२५

मेरी साधना ---

 साधना --- मेरा लक्ष्य केवल आत्म-साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति है। जो भी कार्य मेरे माध्यम से हो रहा है, वह केवल परमात्मा ही कर रहे हैं। मेरा हरेक विचार व हरेक भाव केवल उन्हीं का है। ध्यान-साधना से अनुभूतिजन्य प्राप्त ज्ञान ही मेरा वास्तविक ज्ञान है, अन्य सब परमात्मा से प्राप्त मार्गदर्शन है। मेरी भक्ति (परमप्रेम और अनुराग) केवल परमात्मा के लिये है। जो भी साधना मेरे माध्यम से होती है, उसके कर्ता स्वयं परमात्मा हैं। जब मैं एकांत में होता हूँ तब मुझे केवल उन्हीं का प्रकाश दिखायी देता है, और उन्हीं की पवित्र ध्वनि सुनायी देती है। यही मेरी साधना है और यही मेरा जीवन है।

. जिस भी क्षण अपनी गहनतम चेतना में परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति हो, साधना के लिये वही सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है। साधना का एकमात्र उद्देश्य पूर्ण समर्पण के द्वारा परमात्मा के प्रति परम-अनुराग यानि परम-प्रेम को व्यक्त करना है, अन्य कुछ भी नहीं। इस समय मेरी अंतःचेतना में केवल परमात्मा हैं, उनके अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं पता। मुझे अपने जीवन में बहुत कम लोग ऐसे मिले हैं, जिन्हें परमात्मा से परमप्रेम है, अन्य सब तो परमात्मा के साथ व्यापार ही कर रहे हैं। अब तो मुझे सभी में परमात्मा के दर्शन होते हैं, अतः कोई अंतर नहीं पड़ता।

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यह मेरे इस जीवन का संध्याकाल है, अतः मेरे पास किसी के लिए भी समय बिल्कुल नहीं है। सारा अवशिष्ट जीवन और समय परमात्मा को पूर्णतः समर्पित है। हरिः ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
१७ अक्तूबर २०२५

एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय ---

 एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय ---

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एक समय में हमें परमात्मा के एक ही आयाम की साधना करनी चाहिए, नहीं तो हमारी साधना एक गोरखधंधा बन जाती है। अंततः लौटकर बापस हमें एक पर ही आना पड़ेगा। ओशो के साहित्य में कहीं पढ़ा है कि हिन्दी भाषा का एक शब्द "गोरखधंधा" इसलिए पड़ा क्योंकि गुरु गोरखनाथ एक के बाद एक सिद्धियों के पीछे पड़े रहे और सृष्टि की सारी सिद्धियाँ उन्होने प्राप्त कर लीं। जब कुछ प्राप्त करने को बचा ही नहीं तब अपने शिवभाव में स्थित होकर उन्होंने सब सिद्धियाँ गंगाजी में विसर्जित कर दीं, और स्वयं शिव हो गये। तंत्र और योग में हमें जो भी ज्ञान उपलब्ध है वह सब उनके या उनकी परंपरा के सिद्ध योगियों से प्राप्त है।
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गुरु गोरखनाथ का जन्म आचार्य शंकर से भी बहुत पहले हुआ था। आचार्य शंकर का जन्म ईसा मसीह से ५०९ वर्ष पूर्व हुआ था। अंग्रेज़ इतिहासकारों ने हिंदुओं को नीचा दिखाने के लिये आचार्य शंकर का जन्म आठवीं सदी में और गोरखनाथ का जन्म ग्यारहवीं सदी में बताया है। मुझे एक बहुत बड़े महात्मा ने बताया है कि आचार्य शंकर के समक्ष गुरु गोरखनाथ स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने आचार्य शंकर को श्रीविद्या (श्रीललितामहात्रिपुरसुंदरी) की दीक्षा दी। मैं अपनी अंतर्प्रज्ञा से भी यह बात सत्य मानता हूँ।
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मेरे एक घनिष्ठ मित्र हैं जो बड़े अच्छे और रहस्यमय साधक हैं, कई बार मैं उनसे आध्यात्मिक विषयों पर परामर्श भी करता हूँ। शिक्षा से वे एक इंजीनियर हैं, लेकिन उनकी बहुत गहरी दखल तंत्र-मंत्र में है, योग में भी है, और आयुर्वेद में भी। कई दुर्लभ औषधियों की उन्होने खोज की है और कुछ अप्रचलित चिकित्सा पद्धतियों की भी। तंत्र-मंत्र के अनेक प्रयोग उन्होंने स्वयं पर ही सफलतापूर्वक किये हैं। योग-साधना में भी बहुत गहराई है उनमें। मैं उनसे भी एक ही बात कहता हूँ कि एक ही दिशा में डटे रहो, लेकिन उनका स्वभाव कुछ अलग ही है।
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मुझे गर्व है कि पूरे भारत में मेरे बहुत अच्छे आध्यात्मिक मित्र हैं। मुझे उन पर गर्व है।
२२ अक्तूबर २०२५