कई साधक शिकायत करते हैं कि उनकी साधना नहीं हो रही है।
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यदि साधना में किसी भी तरह का व्यवधान है तो एक बार तो एकांत में मौन होकर खूब जप-यज्ञ करें। कोई दिखावा न करें, यह साधक के और साध्य के मध्य का निजी मामला है। फिर चलते-फिरते, सोते-जागते, हर समय निरंतर अपना जप करते रहें। औपचारिक रूप से भी यह एक नियम बना लीजिये कि न्यूनतम इतनी मात्रा में इतना जप तो नित्य करना ही है। उस संकल्प पर दृढ़ रहें।
गीता में भगवान कहते हैं --
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥१०:२५॥"
अर्थात् - "महर्षियोंमें मैं भृगु हूँ, वाणीसम्बन्धी भेदोंमें -- पदात्मक वाक्यों में एक अक्षर -- ओंकार हूँ, यज्ञों में जपयज्ञ हूँ, और स्थावरों में अर्थात् अचल पदार्थों में हिमालय नामक पर्वत हूँ।"
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जो साधक हैं वे तो मेरी बात को समझते हैं। और कोई न समझे तो कोई फर्क नहीं पड़ता। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ और आशीर्वचन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२१ जून २०२२
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