"भगवान" और "परमात्मा" -- इन दोनों शब्दों में बहुत अधिक अंतर है ---
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(१) "भगवान" शब्द का अर्थ --
"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्योश्चैव षण्णाम् भग इतीरणा॥" –विष्णुपुराण ६ । ५ । ७४
सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, तथा वैराग्य -- यह छः सम्यक् पूर्ण होने पर `भग` कहे जाते हैं और इन छः की जिसमें पूर्णता है, वह भगवान है|
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(२) "परमात्मा" शब्द का अर्थ --
परमात्मा सम्पूर्ण अस्तित्व हैं, अतः अपरिभाष्य हैं। जिनके संकल्प से इस सृष्टि का उद्भव हुआ है, जिनके संकल्प से ही इस सृष्टि का भरण-पोषण और संहार हो रहा है; जो स्वयं ही यह सृष्टि बन गए हैं, और सब कारणों के कारण हैं, वे परमात्मा हैं। उन्हें समझना मनुष्य की बुद्धि से परे है। जिन्हें वे कृपा कर के अपना रहस्य बताते हैं, वही उन्हें समझ सकता है। फिर वह भी उनके साथ एक हो जाता है।
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(३) भक्ति और भक्त का अर्थ --
नारद भक्ति सूत्रों के अनुसार भगवान के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है।
जिसमें भगवान के प्रति परम प्रेम है वह ही भक्त है।
शांडिल्य ऋषि, और आचार्य वल्लभ आदि द्वारा बताए हुए भक्ति के अर्थ भी मिलते जुलते हैं, सिर्फ शब्दों का अंतर है।
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(४) भगवान की भक्ति एक उपलब्धी है, कोई क्रिया नहीं। भगवान की भक्ति अनेकानेक जन्मों के अत्यधिक शुभ कर्मों की परिणिति है, जो प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती है। स्वाध्याय, सत्संग, साधना, सेवा और प्रभु चरणों में समर्पण का फल है -- भक्ति। यह एक अवस्था है जो प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती है।
भक्ति कोई एक जन्म की उपलब्धि नहीं है। अनेक जन्मों के पुण्य संचित होते हैं तब भक्ति का उदय होता है। भगवान की भक्ति से मनुष्य कृतकृत्य और कृतार्थ हो जाता है। परमात्मा -- परम-प्रेम (भक्ति) से ही प्राप्त होते हैं।
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(५) "निराकार" और "साकार" शब्दों के अर्थ --
जहाँ भी हम हैं, वहीं परमात्मा है। हमारा पूरा अस्तित्व ही परमात्मा है। "निराकार" शब्द का अर्थ है -- सारे आकार जिसके हैं, जो सभी आकारों में है। इस सृष्टि में ऐसी कोई रचना नहीं है, जिसका आकार नहीं है।
जिसकी कोई सुनिश्चित आकृति हो वह साकार है।
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सार की बात ---
जो परमात्मा का सदा ध्यान करते हैं, परमात्मा भी सदा उनका ध्यान करते हैं।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१८ मई २०२४
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