मैं साँस नहीं ले रहा। स्वयं परमात्मा इस सारी सृष्टि के रूप में मेरे माध्यम से साँस ले रहे हैं।
(I am not breathing -- I am being breathed by the Divine).
यह देह परमात्मा का एक उपकरण है। परमात्मा अपने इस उपकरण से साँस ले रहे हैं। मेरा कुछ होना, यानि पृथकता का बोध -- एक भ्रम मात्र है। मैं और मेरे प्रभु -- एक हैं।
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परमात्मा के सभी रूपों में सबसे अधिक स्वभाविक आकर्षण भगवान श्रीकृष्ण का है। उनका आकर्षण इतना अधिक प्रबल है कि मैं स्वयं को रोक नहीं सकता। मैं ध्यान तो परमशिव का करता हूँ लेकिन अनुभूतियाँ सदा भगवान श्रीकृष्ण की होती हैं। शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है। दोनों एक हैं।
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इस सृष्टि में जड़ हो या चेतन, सभी का धर्म होता है। सारी सृष्टि अपने सनातन नियमों से चल रही है। यहाँ अधर्म का कोई अस्तित्व नहीं है। जो कहता है कि मेरा कोई धर्म नहीं है, वह अपने स्वयं के विनाश को निमंत्रित कर रहा है, विनाश ही उसका धर्म है। यहाँ हर ऊर्जा कण, उसके प्रवाह, स्पंदन, व आवृति का धर्म है। प्राण और चेतना का भी धर्म है। धर्म ही समस्त सृष्टि और उसकी गतिशीलता के अस्तित्व का कारण है।
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"वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम्। देवकी परमानंदं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्॥
कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने, प्रणत: क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः॥"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ हरिः ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ अप्रेल २०२५
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