--- "तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों का निमंत्रण" ---
हम प्रेममय ही नहीं, स्वयं परमप्रेम बन जायें, हमारी साधना का यही उद्देश्य हो --
.
कभी-कभी मन में अनेक बार एक विचार उठता था कि श्रीमद्भगवद्गीता का सर्वाधिक प्रिय शब्द कौन सा है। भगवान के लिए श्रीमद्भगवद्गीता में अनेक शब्दों का प्रयोग हुआ है। लेकिन सबसे अधिक प्रिय शब्द जो मुझे लगा है, वह है --"कूटस्थ"। कूटस्थ कौन है? भगवान श्रीकृष्ण स्वयं "कूटस्थ" हैं। "कूटस्थ" एक अनुभूति है जो परमशिव का बोध कराती है। परमात्मा सर्वत्र हैं, लेकिन वे कहीं भी दिखायी नहीं देते, इसलिये वे "कूटस्थ" हैं।
.
श्रीमद्भगवद्गीता के पुरुषोत्तम, वेदान्त के ब्रह्म, और रामायण के श्रीराम -- एक ही हैं। उनमें कोई अंतर नहीं है।
इसकी अनुभूति ध्यान-साधना में होती है। पता नहीं क्या बात है, मैं परमात्मा के किसी भी रूप का ध्यान करूँ, अनुभूति मुझे श्रीकृष्ण के अनंत परम ज्योतिर्मय रूप की ही होती है, इसीलिए उनके लिए मुझे "कूटस्थ" शब्द सर्वाधिक प्रिय है। ज्योतिर्मय सच्चिदानंद भगवान श्रीकृष्ण की अनंत चेतना ही "कूटस्थ-चैतन्य" है। वे ही शांभवी मुद्रा में मेरे कूटस्थ में अपना ध्यान स्वयं कर रहे हैं।
.
एक बार मन में एक विचार आया कि परमात्मा के अनेक रूपों के अनेक बीजमंत्र हैं, मेरे लिए कौन सा बीजमंत्र सर्वाधिक उपयुक्त है? उस समय मैं एक गाँव में एक महात्मा जी का सत्संग कर रहा था। उनसे मैंने कुछ भी नहीं पूछा, अचानक ही उन्होने मुझे गोपाल-सहस्त्रनाम का एक गुटका देकर उसका स्वाध्याय करने को कहा। गोपाल-सहस्त्रनाम खोलते ही सामने भगवान श्रीकृष्ण का बीजमंत्र दिखायी दिया। भगवती महाकाली और कामदेव का बीज भी वही है। सारे संशय मिट गये। देहरादून में कोलागढ़ रोड पर एक वयोवृद्ध ब्रह्मज्ञ महात्मा रहते थे, अब तो वे ब्रह्मलीन हो गये हैं। उन्होंने हिमालय में वर्षों तक खूब तपस्या की और भगवान का साक्षात्कार किया। उनसे सत्संग के लिए मेरा तीन बार देहरादून जाना हुआ था। फोन पर भी अनेक बार उनसे सत्संग हुआ। उन्होने मुझ पर कृपा कर के बिना पूछे ही एक बार साधना के अनेक रहस्य अनावृत कर दिये। उसके पश्चात कोई संशय नहीं बचा। अब मन में कोई प्रश्न उठता है तो उसका उत्तर श्रीमद्भगवद्गीता के स्वाध्याय से मिल जाता है। कोई संशय नहीं है।
.
एक बहुत प्रबल आकर्षण है जो निरंतर बढ़ रहा है। मैं स्वयं को रोक नहीं सकता। हरिवंश राय बच्चन जी की एक प्रसिद्ध कविता है --
--- "तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों का निमंत्रण" ---।
इस जन्म में नहीं, तो अगले जन्म में ही सही। यह एक सतत/अनवरत प्रक्रिया है जो अनेक जन्मों तक चलती रहती है। एक न एक दिन पूर्ण तो होती ही है।
हरिः ॐ तत्सत् ॥
कृपा शंकर
१९ अप्रेल २०२५
No comments:
Post a Comment