Saturday, 24 July 2021

ज्योतिर्मय आत्म-शिवलिंग क्या है? ---

 

ज्योतिर्मय आत्म-शिवलिंग क्या है?
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जिसके अन्दर सबका विलय होता है उसे लिंग कहते हैं| स्थूल जगत का सूक्ष्म जगत में, सूक्ष्म जगत का कारण जगत में और कारण जगत का सभी आयामों से परे .... तुरीय चेतना में विलय हो जाता है| उस तुरीय चेतना का प्रतीक हैं .... शिवलिंग, जो साधक के कूटस्थ में निरंतर जागृत रहता है| उस पर ध्यान से चेतना ऊर्ध्वमुखी होने लगती है| ध्यान में आत्मतत्व की अनुभूति ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप एक बृहत लिंगाकार में होती है, जिस में सारी सृष्टि समाहित है|
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ध्यान उन परमशिव का ही हो, जिनकी अनुभूति गुरुकृपा से कूटस्थ में ज्योतिर्मय आत्म-शिवलिंग के रूप में होती है| उन की गहन अनुभूति के पश्चात सारे संचित कर्मफल, विक्षेप और आवरण, उन्हीं में विलीन होने लगते हैं| फिर उन्हीं की उपासना हो और चेतना वहीं पर रहे, अन्यत्र कहीं भी नहीं, अन्यथा भटकाव की पीड़ा और कष्ट बड़ा भयंकर है, जिसे मैं अनेक बार भुगत चुका हूँ| अब और नहीं भटकना चाहता|
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कुछ अति गूढ़ मूल-तत्व की बातें परमात्मा की विशेष कृपा से ही समझ में आ सकती हैं, जिन्हें अन्य कोई नहीं, स्वयं परमात्मा ही समझा सकते हैं| उन के मार्ग-दर्शन के पश्चात इधर-उधर अन्यत्र कहीं भी नहीं देखना चाहिए| भगवान परमशिव, जीवात्मा को संसारजाल, कर्मजाल और मायाजाल से मुक्त कर, स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह के तीन पुरों को ध्वंश कर महाचैतन्य में प्रतिष्ठित कराते है, अतः वे त्रिपुरारी हैं| वे ही मेरे परम आराध्य हैं|
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सर्वश्रेष्ठ सत्संग ... परमात्मा का संग है| साधक को नाप-तोल कर कम से कम और सिर्फ आवश्यक, त्रुटिहीन व स्पष्ट शब्दों का ही प्रयोग पूरे आत्मविश्वास से करना चाहिए| आत्मनिंदा, आत्मप्रशंसा और परनिंदा से बचें| किसी की अनावश्यक प्रशंसा भी हमारी हानि करती है| दूसरों द्वारा की गयी प्रशंसा और निंदा की ओर ध्यान न दें| किसी की भी बातों से व्यक्तिगत रूप से आहत न हों, और आल्हादित भी न हों|
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परमात्मा की चेतना में रहते हुए बात करें| कुछ भी बोलते समय हमारी आतंरिक चेतना कूटस्थ में हो| अपनी बात को पूरे आत्मविश्वास से प्रस्तुत करें| बोलते समय यह भाव रखें कि स्वयं भगवान हमारी वाणी से बोल रहे हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ जुलाई २०२०

2 comments:

  1. "अपेक्षाएँ" हमारी सबसे बड़ी शत्रु हैं.
    किसी से कुछ भी "अपेक्षा" हमें दुःखी और पराधीन करती है.
    यह प्रकृति का शाश्वत नियम है.

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  2. मनुष्य की सारी समस्याओं का निदान परमात्मा में है|
    हमारी प्रथम, अंतिम, और एकमात्र समस्या परमात्मा को प्राप्त करना है|
    यही हमारा सर्वोपरि कर्तव्य है और यही सनातन धर्म है|

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