धर्म-अधर्म, कर्म, भक्ति, और ज्ञान .....
जिससे हमारा सर्वतोमुखी सम्पूर्ण विकास हो, और सब तरह के दुःखों से मुक्ति मिले, वही धर्म है| जो इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता वह धर्म नहीं, अधर्म है| धर्म ही "अभ्यूदय और निःश्रेयस की सिद्धि" है|
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मेरा सौभाग्य है कि मेरा जन्म भारत में हुआ| जो कुछ भी मैं लिख पा रहा हूँ वह तभी संभव हुआ है क्योंकि मैं भारत में जन्मा हूँ| भारत पर भगवान की बड़ी कृपा है| इस भूमि पर अनेक महान आत्माओं ने समय समय पर जन्म लिया है और श्रुतियों, स्मृतियों, व आगम शास्त्रों के माध्यम से धर्म के तत्व को समझाया है| भारत से बाहर या अन्य किसी संस्कृति में यह नहीं हो सकता था|
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रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने रामकथा के माध्यम से जन सामान्य को धर्म की शिक्षा दे दी| रामकथा को ही पढ़ते या सुनते रहने से भक्ति जागृत हो जाती है और एक सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी समझ जाता है कि धर्म और अधर्म क्या है| उनका समय अति विकट था, भारत में सनातन धर्म पर अधर्मियों द्वारा बड़े भयावह भीषण आक्रमण, अत्याचार व जन-संहार हो रहे थे, और जन-सामान्य की आस्था डिग रही थी| उस अति विकट समय में धर्म-रक्षा हेतु इस महान ग्रंथ की रचना कर के उन्होने हम सब पर बड़े से बड़ा उपकार किया और धर्म की रक्षा की| इस ग्रंथ ने देश में उस समय एक प्रचंड ऊर्जा, साहस और प्राणों का संचार किया था|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने सिर्फ तीन विषयों .... कर्म, भक्ति और ज्ञान, की चर्चा की है, कोई अन्य विषय नहीं छेड़ा है| इन तीन विषयों की चर्चा में ही धर्म के सारे तत्व को लपेट लिया है, कुछ भी बाहर नहीं छोड़ा है| लेकिन साथ साथ सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण की बात भी कह दी है कि जिस व्यक्ति में जैसा गुण प्रधान है उसे वैसा ही समझ में आयेगा| अंततः वे शरणागति व समर्पण द्वारा तीनों गुणों व धर्म-अधर्म से भी परे जाने का उपदेश देते हैं| यही गीता का सार है|
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अब अंत में थोड़ी सी अति अति लघु चर्चा तंत्र और योग पर करूँगा क्योंकि दोनों का लक्ष्य एक ही है, और वह है ..... "आत्मानुसंधान"| यथार्थ में आत्मानुसंधान यानि आत्मज्ञान ही सनातन धर्म है|
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तंत्र मूल रूप से शिव और शक्ति के मध्य के पारस्परिक संवाद हैं| जैसे श्रीराधा और श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं, वैसे ही शिव और शक्ति में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं| शक्ति, शिव से ही प्रकट होती है और शिव से प्रश्न करती है| शिव, शक्ति को उत्तर देते हैं और शक्ति जब शिव के उत्तरों से संतुष्ट हो जाती है तब प्रसन्न होकर बापस शिव में ही विलीन हो जाती है|
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वैसे तत्व रूप में शिव और विष्णु में भी कोई भेद नहीं है| दोनों एक ही हैं| जो भेद दिखाई देता है वह हमारी अज्ञानता के कारण है|
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जैसा मुझे समझ में आया है उसके अनुसार तंत्र शास्त्रों का सार है कि मनुष्य की सूक्ष्म देह में अज्ञान की तीन ग्रंथियाँ हैं ... ब्रह्मग्रंथि (मूलाधारचक्र में), विष्णुग्रंथि (अनाहतचक्र में) और रुद्रग्रन्थि (आज्ञाचक्र में)| जब तक इन ग्रंथियों का भेदन नहीं होता तब तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती| इन ग्रंथियों के भेदन और अपने परम लक्ष्य आत्मज्ञान को प्राप्त करने की विधि ही योगशास्त्र है| इस से अधिक लिखने की क्षमता मुझमें इस समय नहीं है|
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अब किसी भी तरह के कोई उपदेश अच्छे नहीं लगते, उनमें रुचि अब और नहीं रही है| परमात्मा की परमकृपा से तत्व की बात जब समझ में आने लगती है तब और कुछ भी अच्छा नहीं लगता, सारे भेद भी समाप्त होने लगते हैं| भगवान का साकार या निराकार जो भी रूप है वह जब हृदय में प्रतिष्ठित हो जाता है तब वही सब कुछ बन जाता है|
आप सब को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जून २०२०
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