आध्यात्मिक मार्ग पर हमारी विफलताओं का एकमात्र कारण .... "सत्यनिष्ठा का अभाव" (Lack of Integrity and Sincerity) है|
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अन्य कोई कारण नहीं है| बाकी सब झूठे बहाने हैं| हम झूठ बोल कर स्वयं को ही धोखा देते हैं| परमात्मा "सत्य" यानि सत्यनारायण हैं| असत्य बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है, और दग्ध वाणी से किये हुए मंत्रजाप व प्रार्थनाएँ निष्फल होती हैं|
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वास्तव में हमने भगवान को कभी चाहा ही नहीं| चाहते तो "मन्त्र वा साधयामि शरीरं वा पातयामि" यानि या तो मुझे भगवान ही मिलेंगे या प्राण ही जाएँगे, इस भाव से साधना करके अब तक भगवान को पा लिया होता| हमने कभी सत्यनिष्ठा से प्रयास ही नहीं किया|
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सत्यनिष्ठा को ही भगवान श्रीकृष्ण ने "अव्यभिचारिणी भक्ति" कहा है| उन्होने "अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति", "एकांतवास" और "कुसङ्गत्याग" पर ज़ोर दिया है....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
अर्थात अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि ||
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अब और कुछ लिखने को रहा ही नहीं है| आप सब बुद्धिमान हैं| मेरे जैसे अनाड़ी की बातों को पढ़ा इसके लिए आभारी हूँ| आप सब को सादर नमन| ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
१४ जून २०२०
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