तीन अत्यंत महत्वपूर्ण बाते हैं जिनका ध्यान प्रत्येक साधक को रखना चाहिए, अन्यथा शत-प्रतिशत भटकाव निश्चित है ---
.
(१) आध्यात्मिक साधना का प्रथम, अंतिम और एकमात्र उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति यानि आत्म-साक्षात्कार है, और कुछ भी नहीं। इस मार्ग में शत-प्रतिशत समर्पण की आवश्यकता है -- परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई भी भावना/कामना हृदय या मन में नहीं होनी चाहिए। यश, मान-सम्मान, कीर्ति, प्रसिद्धि, और सिद्धियों को प्राप्त करने की भावना/कामना छोड़नी पड़ेंगी। यदि उपरोक्त में से किसी को भी प्राप्त करने की कामना आप में है तो अन्य बहुत सारे मार्ग आपके लिए हैं, आध्यात्म नहीं। यहाँ भगवान आपका १००% मांगते हैं, ९९.९९% भी नहीं चलेगा। आपका एकमात्र संबंध परमात्मा से है, बाकी अन्य सब रंगमंच के कलाकारों की तरह परमात्मा की अभिव्यक्तियाँ हैं, परमात्मा नहीं।
.
(२) अपनी-अपनी गुरु-परंपरा का पूर्ण सम्मान करो। अपनी जो भी आध्यात्मिक समस्या है, उसका समाधान अपनी गुरु-परंपरा में ही करो, उससे बाहर नहीं। जहाँ से आपने आध्यात्मिक दीक्षा ली है, वहीं पर अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा का समाधान करें। इधर-उधर कहीं पर भी न भटकें। अच्छे संत-महात्माओं का सत्संग करें अवश्य, लेकिन सत्संग के लिए ही। मेरा संपर्क भारत की प्रायः सभी आध्यात्मिक परम्पराओं से है, सभी का मैं पूर्ण सम्मान करता हूँ, और प्रायः सभी के महात्माओं का मैंने, खूब सत्संग लाभ लिया है। उन सभी महात्माओं से मुझे बहुत प्रेम भी मिला है। लेकिन ईश्वर-लाभ मुझे मेरे सद्गुरु से ही मिला है।
अब एक अत्यधिक महत्वपूर्ण बात है --
यदि आप पायें कि गुरु का आचरण व उसके विचार गलत हैं, और वह आपको परमात्मा की उपलब्धि नहीं करा सकता तो ससम्मान गुरु का भी त्याग कर दें। सद्गुरु की प्राप्ति साधक को उसके अच्छे कर्मों से ही होती है, अन्यथा नहीं। जैसी आपकी भावना होती है, वैसे ही गुरु मिलेंगे। पर किसी का भी आपको निरादर करने का अधिकार नहीं है।
.
(३) मुझे भारत से प्रेम है क्योंकि भारत मेरी पुण्यभूमि है। भगवान की और धर्म की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारत में ही हुई है। यह राम और कृष्ण की लीलाभूमि रही है। भगवान के सभी अवतार यहाँ हुए हैं, और सृष्टि के आदिकाल से ही सभी महापुरुषों के चरण कमल इस भूमि पर पड़े हैं।
भारत में और धर्म में कभी अंतर्विरोध नहीं हो सकता क्योंकि सनातन धर्म ही भारत है, और भारत ही सनातन धर्म है।
.
परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्मगण को सादर नमन!!
(मेरे से वे ही जुड़ें जिनके हृदय में परमात्मा और भारतभूमि से प्रेम है। अन्य सब मुझे unfriend कर के विष (जहर) मिले शहद की तरह त्याग दें। मेरा भी अनमोल समय नष्ट न करें, और अपना भी)
ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
२९ मई २०२१
पुनश्च :--- उपरोक्त लेख में "गुरु-परंपरा" के स्थान पर "साधना-परंपरा" पढ़ें। इनमें अति अल्प भेद है। "साधना-परंपरा" अधिक उचित शब्द है।
मैं एक अकिंचन जिज्ञासु हूँ, स्वयं को मुमुक्षु या साधक भी नहीं कह सकता। मेरे पास कोई करामात नहीं है।
ReplyDelete.
यहाँ एक बात स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि जिस किसी भी साधक ने जिस भी गुरु-परंपरा से दीक्षा ले रखी है, उसे अपनी किसी भी समस्या का समाधान उसी गुरु-परंपरा में रहते हुए, उसी गुरु-परंपरा के आचार्य से कराना चाहिए। अपनी-अपनी गुरु-परंपरा का सम्मान करें, और उसी के प्रति प्रतिबद्ध रहते हुए सत्यनिष्ठा से अपनी साधना करें।