ध्यान साधना :----
कोई भी ध्यान साधना तभी करें जब परमात्मा से परमप्रेम हो, और उन्हें पाने की एक अति गहन अभीप्सा हो| ध्यान साधना में यम-नियमों का पालन करना पड़ता है जो सभी के लिए संभव नहीं है| आचार-विचार में अशुद्धि से लाभ के स्थान पर हानि ही होती है| अतः यदि आचरण में और विचारों में पवित्रता संभव नहीं है तो किसी भी तरह की ध्यान साधना नहीं करें|
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ध्यान साधना में मेरूदण्ड सदा उन्नत रहे और दृष्टिपथ भ्रूमध्य की ओर रहे, पर प्रयासपूर्वक निज चेतना सदा आज्ञाचक्र पर या उस से ऊपर ही रखें| आज्ञाचक्र ही हमारा आध्यात्मिक हृदय है| प्रभु के चरण कमल सहस्त्रार हैं| सहस्त्रार में स्थिति गुरु चरणों में आश्रय है| ऊनी आसन पर पूर्व या उत्तर की ओर मुंह कर के पद्मासन/सिद्धासन/वज्रासन या सुखासन में बैठें| भूमि पर नहीं बैठ सकते तो एक ऊनी कंबल बिछा कर उस पर बिना हत्थे की कुर्सी पर बैठें, पर कमर सदा सीधी रहे|
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कौन सी धारणा व किस का ध्यान करें? :---
ब्रह्मरंध्र से ऊपर ब्रह्मांड की अनंतता हमारा वास्तविक अस्तित्व है, यह देह भी उसी का एक भाग है| हम यह देह नहीं हैं, यह देह हमारे अस्तित्व का एक छोटा सा भाग, और हमारी उस अनंत विराटता को पाने का एक साधन मात्र है| अपने पूर्ण प्रेम से परमात्मा की उस परम ज्योतिर्मय विराट अनंतता पर ध्यान करें| यही पूर्णता है, यही परमशिव है, यही परमब्रह्म है| अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें समर्पित कर दें, कुछ भी बचा कर न रखें| अपना सम्पूर्ण अस्त्तित्व, अपना सब कुछ उन्हें समर्पित कर दें|
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ध्यान साधना में मेरूदण्ड सदा उन्नत रहे और दृष्टिपथ भ्रूमध्य की ओर रहे, पर प्रयासपूर्वक निज चेतना सदा आज्ञाचक्र पर या उस से ऊपर ही रखें| आज्ञाचक्र ही हमारा आध्यात्मिक हृदय है| प्रभु के चरण कमल सहस्त्रार हैं| सहस्त्रार में स्थिति गुरु चरणों में आश्रय है| ऊनी आसन पर पूर्व या उत्तर की ओर मुंह कर के पद्मासन/सिद्धासन/वज्रासन या सुखासन में बैठें| भूमि पर नहीं बैठ सकते तो एक ऊनी कंबल बिछा कर उस पर बिना हत्थे की कुर्सी पर बैठें, पर कमर सदा सीधी रहे|
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कौन सी धारणा व किस का ध्यान करें? :---
ब्रह्मरंध्र से ऊपर ब्रह्मांड की अनंतता हमारा वास्तविक अस्तित्व है, यह देह भी उसी का एक भाग है| हम यह देह नहीं हैं, यह देह हमारे अस्तित्व का एक छोटा सा भाग, और हमारी उस अनंत विराटता को पाने का एक साधन मात्र है| अपने पूर्ण प्रेम से परमात्मा की उस परम ज्योतिर्मय विराट अनंतता पर ध्यान करें| यही पूर्णता है, यही परमशिव है, यही परमब्रह्म है| अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें समर्पित कर दें, कुछ भी बचा कर न रखें| अपना सम्पूर्ण अस्त्तित्व, अपना सब कुछ उन्हें समर्पित कर दें|
इस से पूर्व कुछ देर तक हठयोग के प्राणायाम कर के बाह्यांतर कुंभक करें और सांस जब लेनी पड़े तब अजपा-जप (हंसयोग), नादानुसंधान, शक्ति-संचलन, मंत्र-जप आदि अपनी अपनी गुरु-परंपरानुसार करें|
गुरु परंपरा का आचार्य वही हो सकता है जो श्रौत्रीय (जिसे श्रुतियों यानि वेदों का ज्ञान हो) व ब्रहमनिष्ठ हो|
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(सार्वजनिक मंचों पर इससे अधिक नहीं लिखा जा सकता क्योंकि आगे की सारी विधियाँ आचार्य गुरु के द्वारा ही बताई जा सकती हैं और साधना भी आचार्य गुरु के मार्ग-दर्शन में ही होती है) ॐ तत्सत्! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मई २०२०
गुरु परंपरा का आचार्य वही हो सकता है जो श्रौत्रीय (जिसे श्रुतियों यानि वेदों का ज्ञान हो) व ब्रहमनिष्ठ हो|
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(सार्वजनिक मंचों पर इससे अधिक नहीं लिखा जा सकता क्योंकि आगे की सारी विधियाँ आचार्य गुरु के द्वारा ही बताई जा सकती हैं और साधना भी आचार्य गुरु के मार्ग-दर्शन में ही होती है) ॐ तत्सत्! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मई २०२०
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