आत्मतत्व में स्थित होना ही स्वस्थ (स्व+स्थ) होना है, स्व में स्थिति
ही स्वास्थ्य है, यही आध्यात्म है, यही गुरुतत्व है, और यही परमात्मा की
प्राप्ति है ....
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यह एक अनुभूति का विषय है जो परमात्मा की कृपा से ही समझ में आता है, बुद्धि से नहीं, अतः इस पर किसी भी तरह का विवाद निरर्थक है| आत्मतत्व में स्थिति ही गुरुतत्व में स्थिति है, और यही परमात्मा की प्राप्ति है| लोग कुतर्क करते हैं कि परमात्मा तो सदा प्राप्त है, परमात्मा कब अप्राप्त था? यह एक भ्रामक कुतर्क मात्र है| वास्तव में परमात्मा उसी को प्राप्त है जो आत्मतत्व में स्थित है| यही आध्यात्म है| बिना किसी शर्त के परमात्मा से परम प्रेम यानि Unconditional love to the Divine ही द्वार है| जितना अधिक हमें परमात्मा से प्रेम होता है उसी अनुपात में हमारा मार्ग प्रशस्त होता जाता है|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण का कथन है .....
"निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः |
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ||"
अर्थात जो मोह से रहित हैं, जिन्होनें संगदोषों अर्थात आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्य आध्यात्म (निरंतर आत्मा में ही) में स्थित हैं, जो कामनाओं से रहित हैं, जो सुख-दुःख रूपी द्वंद्वो से मुक्त है, ऐसे साधक भक्त उस अविनाशी परमपद (परमात्मा) को प्राप्त होते हैं|
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यह एक अनुभूति का विषय है जो परमात्मा की कृपा से ही समझ में आता है, बुद्धि से नहीं, अतः इस पर किसी भी तरह का विवाद निरर्थक है| आत्मतत्व में स्थिति ही गुरुतत्व में स्थिति है, और यही परमात्मा की प्राप्ति है| लोग कुतर्क करते हैं कि परमात्मा तो सदा प्राप्त है, परमात्मा कब अप्राप्त था? यह एक भ्रामक कुतर्क मात्र है| वास्तव में परमात्मा उसी को प्राप्त है जो आत्मतत्व में स्थित है| यही आध्यात्म है| बिना किसी शर्त के परमात्मा से परम प्रेम यानि Unconditional love to the Divine ही द्वार है| जितना अधिक हमें परमात्मा से प्रेम होता है उसी अनुपात में हमारा मार्ग प्रशस्त होता जाता है|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण का कथन है .....
"निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः |
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ||"
अर्थात जो मोह से रहित हैं, जिन्होनें संगदोषों अर्थात आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्य आध्यात्म (निरंतर आत्मा में ही) में स्थित हैं, जो कामनाओं से रहित हैं, जो सुख-दुःख रूपी द्वंद्वो से मुक्त है, ऐसे साधक भक्त उस अविनाशी परमपद (परमात्मा) को प्राप्त होते हैं|
यहाँ भगवान ने "अध्यात्मनित्याः" शब्द का प्रयोग भी किया है जो विचारणीय
है| अनेक मनीषी व्याख्याकारों ने इसकी बड़ी सुन्दर और विस्तृत व्याख्या की
है| यह भगवान का आदेश है कि हम निरंतर आत्म तत्व यानि परमात्मा का चिंतन
करें| यही आध्यात्म है और यही परमात्मा की प्राप्ति है|
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इन पंक्तियों के लिखते समय हमारे मोहल्ले की अनेक माताएँ संकीर्तन करते हुए अपनी दैनिक प्रभातफेरी निकाल रही हैं, उनके शब्द आत्मा को जागृत कर रहे हैं| उन सब को मैं प्रणाम करता हूँ| इसे मैं परमात्मा का आशीर्वाद मान कर स्वीकार कर रहा हूँ| उनकी कृपा सदा बनी रहे|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
८ दिसंबर २०१७
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इन पंक्तियों के लिखते समय हमारे मोहल्ले की अनेक माताएँ संकीर्तन करते हुए अपनी दैनिक प्रभातफेरी निकाल रही हैं, उनके शब्द आत्मा को जागृत कर रहे हैं| उन सब को मैं प्रणाम करता हूँ| इसे मैं परमात्मा का आशीर्वाद मान कर स्वीकार कर रहा हूँ| उनकी कृपा सदा बनी रहे|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
८ दिसंबर २०१७
चिंतामुक्त जीवन जीने का अभ्यास .....
ReplyDeleteचिंतामुक्त जीवन जीने के अभ्यास के लिए दिन में एक निर्धारित समय रखें ..... दो घंटे प्रातःकाल, और दो घंटे सायंकाल .....
उनमें कोई चिंता न करे | कोई ऐसा चिंताजनक विचार आये तो उसे बाद में आने को कह दें कि अभी चिंता नहीं करने का समय है, बाद में आना |
वास्तव में हमें भगवान का इतना अधिक चिंतन करना चाहिए स्वयं भगवान ही हमारी चिंता करने लगें |
ॐ ॐ ॐ