"समत्व" कोई संकल्प मात्र नहीं, भगवान की परम कृपा का फल है .....
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने "समत्व" को योग बताया है| यह "समत्व" कहने को तो सब से आसान व सरल शब्द है, पर इसे निज जीवन में अवतरित करना उतना ही कठिन है| समत्व की सिद्धि सिर्फ संकल्प मात्र से ही नहीं हो सकती, इस की सिद्धि अनेक जन्मों की तपस्या के उपरांत, भगवान की परम कृपा से ही होती है|
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समत्व ही समाधि है और समत्व ही ज्ञान है| समत्व में स्थित व्यक्ति ही ज्ञानी है, और समत्व में स्थित व्यक्ति ही समाधिस्थ है|
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भगवान कहते हैं .....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय |
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||" २:४८
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने "समत्व" को योग बताया है| यह "समत्व" कहने को तो सब से आसान व सरल शब्द है, पर इसे निज जीवन में अवतरित करना उतना ही कठिन है| समत्व की सिद्धि सिर्फ संकल्प मात्र से ही नहीं हो सकती, इस की सिद्धि अनेक जन्मों की तपस्या के उपरांत, भगवान की परम कृपा से ही होती है|
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समत्व ही समाधि है और समत्व ही ज्ञान है| समत्व में स्थित व्यक्ति ही ज्ञानी है, और समत्व में स्थित व्यक्ति ही समाधिस्थ है|
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भगवान कहते हैं .....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय |
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||" २:४८
सर्वप्रथम तो इस श्लोक के शब्दार्थ पर विचार करते हैं, फिर आगे की चर्चा करेंगे|
शब्दार्थ ...... योगस्थः – योग में स्थित होकर, कुरु – करो, कर्माणि – अपने कर्म, सङ्गं – संग यानि आसक्ति को, त्यक्त्वा – त्याग कर, धनञ्जय – हे अर्जुन, सिद्धि-असिद्धयोः – सफलता तथा विफलता में, समः – समभाव, भूत्वा – होकर, समत्वम् – समता, योगः – योग, उच्यते – कहा जाता है|
योगस्थ होकर आसक्ति को त्याग कर समभाव से कर्म करने का आदेश भगवान यहाँ देते हैं, फिर समभाव को ही योग बताते हैं| यहाँ समझना कुछ कठिन है, फिर भी भगवान की कृपा से समझ में आ जाता है|
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भगवान फिर आगे आदेश देते हैं कि .....
"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ||" २:५० ||
अर्थात (समत्व) बुद्धि युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनों का त्याग कर देता है| अतः तू योग (समत्व) में लग जा क्योंकि योग ही कर्मों में कुशलता है|
भगवान का यह आदेश भी भगवान की कृपा से समझ में आ जाता है|
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योगसुत्रों में भगवान पातञ्जलि द्वारा बताए "योगः चित्तवृत्तिनिरोधः" और गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताए गए "समत्वं योग उच्यते" में कोई अंतर नहीं है, क्योंकि चित्तवृत्तिनिरोध से समाधि की प्राप्ति होती है जो समत्व ही है|
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"योगस्थ" होना क्या है ?
सारा कर्ताभाव जहाँ तिरोहित हो जाए, भगवान स्वयं ही एकमात्र कर्ता जहाँ हो जाएँ, जहाँ कोई कामना व आसक्ति नहीं हो, भगवान स्वयं ही जहाँ हमारे माध्यम से प्रवाहित हो रहे हों, मेरी समझ से वही योगस्थ होना है, और वही समत्व यानि समाधि में स्थिति है|
यही मुझे भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से समझ में आ रहा है| इसके आगे जो कुछ भी है वह मेरी बौद्धिक क्षमता से परे है|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०७ नवम्बर २०१७
शब्दार्थ ...... योगस्थः – योग में स्थित होकर, कुरु – करो, कर्माणि – अपने कर्म, सङ्गं – संग यानि आसक्ति को, त्यक्त्वा – त्याग कर, धनञ्जय – हे अर्जुन, सिद्धि-असिद्धयोः – सफलता तथा विफलता में, समः – समभाव, भूत्वा – होकर, समत्वम् – समता, योगः – योग, उच्यते – कहा जाता है|
योगस्थ होकर आसक्ति को त्याग कर समभाव से कर्म करने का आदेश भगवान यहाँ देते हैं, फिर समभाव को ही योग बताते हैं| यहाँ समझना कुछ कठिन है, फिर भी भगवान की कृपा से समझ में आ जाता है|
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भगवान फिर आगे आदेश देते हैं कि .....
"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ||" २:५० ||
अर्थात (समत्व) बुद्धि युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनों का त्याग कर देता है| अतः तू योग (समत्व) में लग जा क्योंकि योग ही कर्मों में कुशलता है|
भगवान का यह आदेश भी भगवान की कृपा से समझ में आ जाता है|
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योगसुत्रों में भगवान पातञ्जलि द्वारा बताए "योगः चित्तवृत्तिनिरोधः" और गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताए गए "समत्वं योग उच्यते" में कोई अंतर नहीं है, क्योंकि चित्तवृत्तिनिरोध से समाधि की प्राप्ति होती है जो समत्व ही है|
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"योगस्थ" होना क्या है ?
सारा कर्ताभाव जहाँ तिरोहित हो जाए, भगवान स्वयं ही एकमात्र कर्ता जहाँ हो जाएँ, जहाँ कोई कामना व आसक्ति नहीं हो, भगवान स्वयं ही जहाँ हमारे माध्यम से प्रवाहित हो रहे हों, मेरी समझ से वही योगस्थ होना है, और वही समत्व यानि समाधि में स्थिति है|
यही मुझे भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से समझ में आ रहा है| इसके आगे जो कुछ भी है वह मेरी बौद्धिक क्षमता से परे है|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०७ नवम्बर २०१७
योगसाधना में प्राण तत्व को स्थिर कर भगवान की परम कृपा से ..... मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार पर नियंत्रण कर सकते हैं| इसके पश्चात ही "एकोsहं द्वितीयोनास्ति" का भाव आता है| प्राणों की स्थिरता ही शिवत्व में स्थिति है ..... जब हम सम्पूर्ण समष्टि के साथ एक हो जाते हैं, तब हम पाते हैं कि सिर्फ एक मैं ही हूँ जो जड़-चेतन में सर्वत्र व्याप्त है, मेरे सिवाय अन्य कोई भी नहीं है| यही शिवत्व है, यही निःसंगत्व है, और यही समाधि की उच्चतम स्थिति है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||