परमात्मा की अनंतता ही हमारा घर है, वही हमारा वास्तविक अस्तित्व है .....
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जब निज चेतना में भगवान स्वयं ही समक्ष हों तब क्या करना चाहिए ? इधर उधर हाथ मारने की बजाए स्वयं को ही पूर्ण रूप से उन्हें समर्पित कर देना चाहिए | कूटस्थ में एक प्रचंड अग्नि सदा प्रज्ज्वलित है जिसकी चेतना भ्रूमध्य में सदा बनी रहनी चाहिए | हर साँस एक यज्ञ है | स्वाभाविक रूप से साँस लेते समय अपनी सारी चेतना को सुषुम्ना मार्ग से मूलाधार चक्र से उठाते हुए आज्ञाचक्र तक लाकर कूटस्थ में उसकी आहुति दे देनी चाहिए | हर चक्र पर ओंकार का मानसिक जाप हो | इस तरह सुषुम्ना में ही विचरण करना चाहिए, पर दृष्टी भ्रूमध्य में ही स्थिर रहे | धीरे धीरे सारी चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में ही स्थिर हो जाती है | यह एक आदर्श स्थिति है |
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जब निज चेतना में भगवान स्वयं ही समक्ष हों तब क्या करना चाहिए ? इधर उधर हाथ मारने की बजाए स्वयं को ही पूर्ण रूप से उन्हें समर्पित कर देना चाहिए | कूटस्थ में एक प्रचंड अग्नि सदा प्रज्ज्वलित है जिसकी चेतना भ्रूमध्य में सदा बनी रहनी चाहिए | हर साँस एक यज्ञ है | स्वाभाविक रूप से साँस लेते समय अपनी सारी चेतना को सुषुम्ना मार्ग से मूलाधार चक्र से उठाते हुए आज्ञाचक्र तक लाकर कूटस्थ में उसकी आहुति दे देनी चाहिए | हर चक्र पर ओंकार का मानसिक जाप हो | इस तरह सुषुम्ना में ही विचरण करना चाहिए, पर दृष्टी भ्रूमध्य में ही स्थिर रहे | धीरे धीरे सारी चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में ही स्थिर हो जाती है | यह एक आदर्श स्थिति है |
कूटस्थ में
दिखने वाली ब्रह्मज्योति का सदा ध्यान करें और वहीं सुनाई दे रहे प्रणव नाद
को सुनते रहें| प्रणव नाद को निरंतर सुनना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है |
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सहस्त्रार ही गुरु महाराज के चरण कमल हैं जिसमें अपनी चेतना का समर्पण ही गुरु चरणों में समर्पण है | सहस्त्रार में स्थिति ही गुरु की परम कृपा है, यही गुरु चरणों का ध्यान है | फिर चेतना विस्तृत होते होते सारी समष्टि में और उससे भी परे व्याप्त हो जाती है, यह शिवभाव है | इस पूरी सृष्टि में और उससे भी परे तत्वरूप में जो व्याप्त हैं वे भगवान परमशिव हैं | उनकी अनंतता ही हमारी वास्तविक देह है | जब उस अनंतता का बोध हो जाए तब उस अनंतता की चेतना में ही रहना चाहिए | परमात्मा की अनंतता ही हमारा घर है, वही हमारा वास्तविक अस्तित्व है |
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
०९ अक्टूबर २०१७
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सहस्त्रार ही गुरु महाराज के चरण कमल हैं जिसमें अपनी चेतना का समर्पण ही गुरु चरणों में समर्पण है | सहस्त्रार में स्थिति ही गुरु की परम कृपा है, यही गुरु चरणों का ध्यान है | फिर चेतना विस्तृत होते होते सारी समष्टि में और उससे भी परे व्याप्त हो जाती है, यह शिवभाव है | इस पूरी सृष्टि में और उससे भी परे तत्वरूप में जो व्याप्त हैं वे भगवान परमशिव हैं | उनकी अनंतता ही हमारी वास्तविक देह है | जब उस अनंतता का बोध हो जाए तब उस अनंतता की चेतना में ही रहना चाहिए | परमात्मा की अनंतता ही हमारा घर है, वही हमारा वास्तविक अस्तित्व है |
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
०९ अक्टूबर २०१७
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