हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ?......
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योगिराज श्री श्री श्याचरण लाहिड़ी महाशय (30 सितम्बर 1828 – 26 सितम्बर 1895) की आज १२२ वीं पुण्यतिथि है| मैं उन्हीं की क्रियायोग मार्ग की परम्परा में दीक्षित हूँ, अतः निम्न पंक्तियाँ उन्हें प्रणाम निवेदित करता हुआ उन की पुण्य स्मृति में लिख रहा हूँ .....
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हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? जीवन और मृत्यु दोनों ही प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं| कभी प्रकाश हावी हो जाता है और कभी अन्धकार, पर विजय सदा प्रकाश की ही होती है यद्यपि अन्धकार के बिना प्रकाश का कोई महत्त्व नहीं है| सृष्टि द्वंद्वात्मक यानि दो विपरीत गुणों से बनी है| जीवन और मृत्यु भी दो विपरीत गुण हैं, पर मृत्यु एक मिथ्या भ्रम मात्र है, और जीवन है वास्तविकता| जीवात्मा कभी मरती नहीं है, सिर्फ अपना चोला बदलती है, अतः विजय सदा जीवन की ही है, मृत्यु की नहीं|
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भगवान श्रीकृष्ण का वचन है ....
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहणाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही" ||
जिस प्रकार मनुष्य फटे हुए जीर्ण वस्त्र उतार कर नए वस्त्र धारण कर लेता है, वैसे ही यह देही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है|
(गीता में आस्था रखने वालों को समाधियों, मक़बरों और कब्रों की पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि दिवंगत आत्मा तो तुरंत दूसरा शरीर धारण कर लेती है| महापुरुष तो परमात्मा के साथ सर्वव्यापी हैं)
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जीवात्मा सदा शाश्वत है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ...
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः | न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः" ||
जीवात्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती"|
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भगवान श्रीकृष्ण ने ही कहा है ....
"न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे"||
जीवात्मा अनादि व अनन्त है| यह न कभी पैदा होता है और न मरता है| यह कभी होकर नहीं रहता और फिर कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है| यह (अज) अजन्मा अर्थात् अनादि, नित्य और शाश्वत सनातन है|
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शरीर के मरने वा मारे जाने पर भी जीवात्मा मरती नहीं है| बाइबिल के अनुसार भी ...
{1 Corinthians 15:54-55New International Version (NIV)}
54 "When the perishable has been clothed with the imperishable, and the mortal with immortality, then the saying that is written will come true: “Death has been swallowed up in victory.”[a]
55 “Where, O death, is your victory?
Where, O death, is your sting?”[b]
Footnotes:
1 Corinthians 15:54 Isaiah 25:8
1 Corinthians 15:55 Hosea 13:14
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श्री श्री लाहिड़ी महाशय अपनी देहत्याग के दूसरे दिन प्रातः दस बजे दूरस्थ अपने तीन शिष्यों के समक्ष एक साथ एक ही समय में अपनी रूपांतरित देह में यह बताने को साकार प्रकट हुए कि उन्होंने अपनी उस भौतिक देह को त्याग दिया है, और उन्हें उनके दर्शनार्थ काशी आने की शीघ्रता नहीं है| उनके साथ उन्होंने और भी बातें की| समय समय पर उन्होंने अपने अनेक शिष्यों के समक्ष प्रकट होकर उन्हें साकार दर्शन दिए हैं| विस्तृत वर्णन उनकी जीवनियों में उपलब्ध है|
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सचेतन देहत्याग के पूर्व उन्होंने कई घंटों तक गीता के श्लोकों की व्याख्या की और अचानक कहा कि "मैं अब घर जा रहा हूँ"| यह कह कर वे अपने आसन से उठ खड़े हुए, तीन बार परिक्रमा की और उत्तराभिमुख हो कर पद्मासन में बैठ गए और ध्यानस्थ होकर अपनी नश्वर देह को सचेतन रूप से त्याग दिया| पावन गंगा के तट पर मणिकर्णिका घाट पर गृहस्थोचित विधि से उनका दाह संस्कार किया गया| वे मनुष्य देह में साक्षात शिव थे|
ऐसे महान गृहस्थ योगी को नमन करते हुए मैं इस लेख का समापन करता हूँ|
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
आश्विन शुक्ल ६, विक्रम संवत २०७४.
२६ सितम्बर २०१७
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योगिराज श्री श्री श्याचरण लाहिड़ी महाशय (30 सितम्बर 1828 – 26 सितम्बर 1895) की आज १२२ वीं पुण्यतिथि है| मैं उन्हीं की क्रियायोग मार्ग की परम्परा में दीक्षित हूँ, अतः निम्न पंक्तियाँ उन्हें प्रणाम निवेदित करता हुआ उन की पुण्य स्मृति में लिख रहा हूँ .....
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हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? जीवन और मृत्यु दोनों ही प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं| कभी प्रकाश हावी हो जाता है और कभी अन्धकार, पर विजय सदा प्रकाश की ही होती है यद्यपि अन्धकार के बिना प्रकाश का कोई महत्त्व नहीं है| सृष्टि द्वंद्वात्मक यानि दो विपरीत गुणों से बनी है| जीवन और मृत्यु भी दो विपरीत गुण हैं, पर मृत्यु एक मिथ्या भ्रम मात्र है, और जीवन है वास्तविकता| जीवात्मा कभी मरती नहीं है, सिर्फ अपना चोला बदलती है, अतः विजय सदा जीवन की ही है, मृत्यु की नहीं|
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भगवान श्रीकृष्ण का वचन है ....
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहणाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही" ||
जिस प्रकार मनुष्य फटे हुए जीर्ण वस्त्र उतार कर नए वस्त्र धारण कर लेता है, वैसे ही यह देही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है|
(गीता में आस्था रखने वालों को समाधियों, मक़बरों और कब्रों की पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि दिवंगत आत्मा तो तुरंत दूसरा शरीर धारण कर लेती है| महापुरुष तो परमात्मा के साथ सर्वव्यापी हैं)
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जीवात्मा सदा शाश्वत है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ...
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः | न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः" ||
जीवात्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती"|
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भगवान श्रीकृष्ण ने ही कहा है ....
"न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे"||
जीवात्मा अनादि व अनन्त है| यह न कभी पैदा होता है और न मरता है| यह कभी होकर नहीं रहता और फिर कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है| यह (अज) अजन्मा अर्थात् अनादि, नित्य और शाश्वत सनातन है|
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शरीर के मरने वा मारे जाने पर भी जीवात्मा मरती नहीं है| बाइबिल के अनुसार भी ...
{1 Corinthians 15:54-55New International Version (NIV)}
54 "When the perishable has been clothed with the imperishable, and the mortal with immortality, then the saying that is written will come true: “Death has been swallowed up in victory.”[a]
55 “Where, O death, is your victory?
Where, O death, is your sting?”[b]
Footnotes:
1 Corinthians 15:54 Isaiah 25:8
1 Corinthians 15:55 Hosea 13:14
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श्री श्री लाहिड़ी महाशय अपनी देहत्याग के दूसरे दिन प्रातः दस बजे दूरस्थ अपने तीन शिष्यों के समक्ष एक साथ एक ही समय में अपनी रूपांतरित देह में यह बताने को साकार प्रकट हुए कि उन्होंने अपनी उस भौतिक देह को त्याग दिया है, और उन्हें उनके दर्शनार्थ काशी आने की शीघ्रता नहीं है| उनके साथ उन्होंने और भी बातें की| समय समय पर उन्होंने अपने अनेक शिष्यों के समक्ष प्रकट होकर उन्हें साकार दर्शन दिए हैं| विस्तृत वर्णन उनकी जीवनियों में उपलब्ध है|
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सचेतन देहत्याग के पूर्व उन्होंने कई घंटों तक गीता के श्लोकों की व्याख्या की और अचानक कहा कि "मैं अब घर जा रहा हूँ"| यह कह कर वे अपने आसन से उठ खड़े हुए, तीन बार परिक्रमा की और उत्तराभिमुख हो कर पद्मासन में बैठ गए और ध्यानस्थ होकर अपनी नश्वर देह को सचेतन रूप से त्याग दिया| पावन गंगा के तट पर मणिकर्णिका घाट पर गृहस्थोचित विधि से उनका दाह संस्कार किया गया| वे मनुष्य देह में साक्षात शिव थे|
ऐसे महान गृहस्थ योगी को नमन करते हुए मैं इस लेख का समापन करता हूँ|
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
आश्विन शुक्ल ६, विक्रम संवत २०७४.
२६ सितम्बर २०१७
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