Friday, 29 August 2025

गणेश चतुर्थी के दिन आज भगवान श्रीगणेश का आदेश है कि अवशिष्ट जीवन भूमा के ध्यान में ही बिताया जाये ---

गणेश चतुर्थी के दिन आज भगवान श्रीगणेश का आदेश है कि अवशिष्ट जीवन भूमा के ध्यान में ही बिताया जाये। साकार और निराकार में कोई भेद नहीं है। दोनों अन्तर्मन की अवस्थाएँ हैं। ओंकार रूप में जो परमात्मा हैं, उन्हीं का साकार रूप श्रीगणेश हैं। पञ्चप्राण उनके गण हैं जिनके वे गणपति हैं। पञ्चप्राणों के पाँच सौम्य, और पाँच उग्र रूप -- दस महाविद्याएँ हैं।

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ब्रह्मविद्या के प्रथम आचार्य -- भगवान सनत्कुमार से उनके प्रिय शिष्य देवर्षि नारद ने पूछा -- "सुखं भगवो विजिज्ञास इति"। जिसका उत्तर भगवान् श्री सनत्कुमार जी का प्रसिद्ध वाक्य है -- "यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति"। भूमा में यानि व्यापकता, विराटता में सुख है, अल्पता में नहीं । जो भूमा है, व्यापक है, वह सुख है। कम में सुख नहीं है। भूमा का अर्थ है -- सर्व, विराट, विशाल, अनंत, विभु, और सनातन।
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भूमा-तत्व का ध्यान ही जीवन में परमात्मा को व्यक्त करने का मार्ग है। जो सब तरह के भेदों और सीमाओं से परे है, वह है भूमा-तत्व। यह सृष्टि की और हमारे जीवन की संपूर्णता है। जो भूमा है, वह सनातन, बृहत्तम, विभु, सर्वसमर्थ, नित्यतृप्त ब्रह्म है। जो भूमा है, वही सुख है, वही अमृत और सत्य है। "भूमा" में ही सुख है, अल्पता में नहीं। पूर्ण भक्ति से समर्पित होकर परमात्मा की अनंतता और विराटता पर ध्यान करते करते "भूमा" की अनुभूति होती है।
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दूसरे शब्दों में "भूमा" -- साधना की लगभग पूर्णता है। मनुष्य का शरीर एक सीमा के भीतर एक भूमि है। इस सीमित शरीर का जब विराट् से सम्बन्ध हो जाता है, तब यह भूमा है। आत्म-साक्षात्कार के पश्चात जो अनुभूति होती है, वह भूमा है। भूमा एक अनंत विराटता की अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं। इसकी अनुभूति उन्हें ही होती है जो परमात्मा की अनंत विराटता पर ध्यान करते हैं।
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"भूमा" तत्व का ध्यान और सिद्धि -- जीवन की संपूर्णता है।
"यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य इति भूमानं भगवो विजिज्ञास इति॥ (छान्दोग्योपनिषद (७/२३/१)
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महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपने कालजयी महाकाव्य "कामायनी" में भूमा शब्द का प्रयोग किया है --
"तपस्वी, क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग?
जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल।
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यक्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान।
यही दुख-सुख विकास का सत्य, यही "भूमा" का मधुमय दान।
(कामायनी)
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ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। ईश्वर की अनुभूति हमें ज्योतिर्मय-ब्रह्म, भूमा, व सच्चिदानंद के रूप में होती है। जब सहस्त्रार का ऊपरी आवरण हट जाता है, तब ज्योतिर्मय अनंताकाश और उससे परे परमशिव की अनुभूति होती है। अनंत विराटता में परमात्मा की अनुभूति ही भूमा है।
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गुरुकृपा ही वेदान्त-वासना और भूमा-वासना की तृप्ति के रूप में फलीभूत होती है। गुरु रूप में स्वयं परमशिव ही 'दक्षिणामूर्ति' हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के पंद्रहवें अध्याय में जिस पुरुषोत्तम-योग का उपदेश जगदगुरु भगवान श्रीकृष्ण ने किया है, वह अंतिम योग, और योग-साधना की परिणिति है। उससे परे कुछ भी नहीं है। लेकिन वह गुरु-रूप में उनकी परम कृपा से ही समझ में आ सकता है।
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हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ अगस्त २०२५

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