Saturday, 28 June 2025

स्वधर्म और परधर्म व अन्य संबन्धित विषय ---

 स्वधर्म और परधर्म व अन्य संबन्धित विषय ---

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(१) परमात्मा से परमप्रेम, या आत्म-तत्व में स्थिति को ही हम "स्वधर्म" कह सकते हैं।
(२) इन्द्रिय सुखों की कामना और अहंकार की चेतना में जीना ही "परधर्म" है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार -- स्वधर्म में निधन होना श्रेयष्कर है, और परधर्म भयावह है। परधर्म में निधन से जीव को अत्यधिक भयावह कष्टों से गुजरना पड़ता है। स्वधर्म की चेतना अंतर में होती है।
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"सर्वधर्म समभाव" क्या है? ---
यह किसी हिन्दुद्रोही सेकुलर मार्क्सवादी विचारक के मस्तिष्क की कल्पना है| धर्म तो एक ही है, वह अनेक कैसे हो सकता है? धर्म है और अधर्म है| धर्म का अर्थ Religion, मजहब या पंथ नहीं है।
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यदि पंथों और मज़हबों की भी तुलना करें तो जिस भी पंथ या मज़हब की साधना पद्धति से दैवीय और मानवीय गुणों का सर्वाधिक विकास होगा, वह पंथ ही सर्वश्रेष्ठ होगा। यही सिद्ध कर सकता है कि सर्वश्रेष्ठ मार्ग कौन सा है, और सर्वधर्म समभाव क्या है। जो पंथ मनुष्य को असत्य और अन्धकार में ले जाए, वह किसी का आदर्श कैसे हो सकता है?
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निष्पक्ष रूप से हर मज़हब/पंथ के दो-दो व्यक्तियों को लिया जाए और उन्हें बाहरी प्रभाव से दूर एकांत में कुछ महीनों के लिए रखा जाए। सब से कहा जाए की एकांत में रहते हुए अपने अपने मजहब/पंथ की साधना करें। फिर उन पर निष्पक्ष अध्ययन और शोध किया जाए की किस पंथ वाले में करुणा, प्रेम, सद्भाव और आनंद आदि गुणों का सर्वाधिक विकास हुआ है। आज तक किसी भी पंथ की श्रेष्ठता और सर्वग्राह्यता पर कोई वैज्ञानिक शोध नहीं हुआ है, जो होना ही चाहिए था।
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किसी का जो भी स्वभाविक गुण-दोष है वह भी उसका धर्म है। शरीर का भी धर्म है -- भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, और सेहत आदि। इन्द्रियों के भी धर्म हैं। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के भी धर्म हैं। मन को यदि अनियंत्रित छोड़ दिया जाए तो मन इतना अधिक भटका देता है कि उस भटकाव से बाहर आना अति कठिन हो जाता है। मन नियंत्रण में है तो वह हमारा परम मित्र है, यह मन का धर्म है। बुद्धि का धर्म विवेक है, अन्यथा तो यह कुबुद्धि है। चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है, यह उसका धर्म है। यही चित्त की वृत्ति है, जिसके निरोध को योग कहा गया है। हमारा बल प्राणों का धर्म है। सब तरह की उलझनों को छोड़कर भगवान की शरण लेना ही सब धर्मों का परित्याग और शरणागति है। शरणागति भी बहुत बड़ा धर्म है। किसी का जो भी सर्वश्रेष्ठ स्वाभाविक गुण है वह उसका स्वधर्म है, जिसमें निधन को श्रेय दिया गया है।
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स्वधर्म की चेतना अंतर में होती है, इसका उत्तर निष्ठावान को प्रत्यक्ष परमात्मा से मिलता है, बुद्धि से यह अगम है। नित्य परमात्मा का ध्यान करें, और स्वयं को हर दृष्टिकोण से शक्तिशाली बनायें -- शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक और आध्यात्मिक।
"धर्म" - धारण करने का विषय है, न कि सिर्फ चर्चा या वाद-विवाद का। जीवन में परमात्मा के प्रति परमप्रेम, सत्यनिष्ठा, श्रद्धा-विश्वास; और उन्हें पाने की अभीप्सा होगी, तभी जीवन की सार्थकता है, तभी जीवन में "धर्म" का अवतरण होगा।
परमात्मा हमारे जीवन के केन्द्रबिन्दु हों। निरंतर उनके प्रति समर्पण का भाव हो।
जिनके हृदय में परमात्मा और सनातन धर्म के प्रति प्रेम नहीं हैं, मेरा उनसे कोई संबंध नहीं है।
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मैं अपने लघु आध्यात्मिक लेखों के साथ-साथ प्रखर राष्ट्र-भक्ति के ऊपर भी लिखता हूँ, क्योंकि मेरे लिए भारत ही सनातन धर्म है और सनातन धर्म ही भारत है। भारत के बिना आध्यात्म की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। परमात्मा की सर्वाधिक अभिव्यक्ति भारत में ही हुई है। सनातन धर्म ही भारत का भविष्य है, और भारत का भविष्य ही इस पृथ्वी का भविष्य है। इस पृथ्वी का भविष्य ही इस सृष्टि का भविष्य है। भारत का पतन - धर्म का पतन है, और भारत का उत्थान - धर्म का उत्थान है। भारत और आध्यात्म भी एक दूसरे के पूरक हैं।
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धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ जून २०२५

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