Friday, 14 March 2025

पञ्चमकार साधन रहस्य ......

पञ्चमकार साधन रहस्य ......

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तंत्र साधना में पञ्च मकारों का बड़ा महत्व है| पर जितना अर्थ का अनर्थ इन शब्दों का किया गया है उतना अन्य किसी का भी नहीं| इनका तात्विक अर्थ कुछ और है व शाब्दिक कुछ और| इनके गहन अर्थ को अल्प शब्दों में व्यक्त करने के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया गया उनको लेकर दुर्भावनावश कुतर्कियों ने सनातन धर्म को बहुत बदनाम किया है| मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन ये पञ्च मकार हैं|
कुलार्णव तन्त्र के अनुसार --
"मद्यपानेन मनुजो यदि सिद्धिं लभेत वै| मद्यपानरता: सर्वे सिद्धिं गच्छन्तु पामरा:||
मांसभक्षेणमात्रेण यदि पुण्या गतिर्भवेत| लोके मांसाशिन: सर्वे पुन्यभाजौ भवन्तु ह||
स्त्री संभोगेन देवेशि यदि मोक्षं लभेत वै| सर्वेsपि जन्तवो लोके मुक्ता:स्यु:स्त्रीनिषेवात||"
मद्यपान द्वारा यदि मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर ले तो फिर मद्यपायी पामर व्यक्ति भी सिद्धि प्राप्त कर ले| मांसभक्षण से ही यदि पुण्यगति हो तो सभी मांसाहारी ही पुण्य प्राप्त कर लें| हे देवेशि! स्त्री-सम्भोग द्वारा यदि मोक्ष प्राप्त होता है तो फिर सभी स्त्री-सेवा द्वारा मुक्त हो जाएँ|
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(1) आगमसार के अनुसार मद्यपान किसे कहते हैं ----
"सोमधारा क्षरेद या तु ब्रह्मरंध्राद वरानने| पीत्वानंदमयास्तां य: स एव मद्यसाधक:||
हे वरानने! ब्रह्मरंध्र यानि सहस्त्रार से जो अमृतधारा निकलती है उसका पान करने से जो आनंदित होते हैं उन्हें ही मद्यसाधक कहते हैं|
ब्रह्मा का कमण्डलु तालुरंध्र है और हरि का चरण सहस्त्रार है| सहस्त्रार से जो अमृत की धारा तालुरन्ध्र में जिव्हाग्र पर (ऊर्ध्वजिव्हा) आकर गिरती है वही मद्यपान है|
इसीलिए ध्यान साधना हमेशा खेचरी मुद्रा में ही करनी चाहिए|
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(२) आगमसार के अनुसार मांस भक्षण किसे कहते हैं --
"माँ शब्दाद्रसना ज्ञेया तदंशान रसना प्रियान | सदा यो भक्षयेद्देवि स एव मांससाधक: ||"
अर्थात मा शब्द से रसना और वाक्य जो रसना को प्रिय है| जो व्यक्ति रसना का भक्षण करते हैं यानी वाक्य संयम करते हैं उन्हें ही मांस साधक कहते हैं| जिह्वा के संयम से वाक्य का संयम स्वत: ही खेचरी मुद्रा में होता है| तालू के मूल में जीभ का प्रवेश कराने से बात नहीं हो सकती और इस खेचरीमुद्रा का अभ्यास करते करते अनावश्यक बात करने की इच्छा समाप्त हो जाए इसे ही मांसभक्षण कहते हैं|
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(३) आगमसार के अनुसार मत्स्य भक्षण किसे कहते हैं --
"गंगायमुनयोर्मध्ये मत्स्यौ द्वौ चरत: सदा| तौ मत्स्यौ भक्षयेद यस्तु स: भवेन मत्स्य साधक:||"
अर्थान गंगा यानि इड़ा, और यमुना यानि पिंगला; इन दो नाड़ियों के बीच सुषुम्ना में जो श्वास-प्रश्वास गतिशील है वही मत्स्य है| जो योगी आतंरिक प्राणायाम द्वारा सुषुम्ना में बह रहे प्राण तत्व को नियंत्रित कर लेते हैं वे ही मत्स्य साधक हैं|
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(४) आगमसार के अनुसार चौथा मकार "मुद्रा" है जिसका अर्थ है --
"सहस्त्रारे महापद्मे कर्णिका मुद्रिता चरेत| आत्मा तत्रैव देवेशि केवलं पारदोपमं||
सूर्यकोटि प्रतीकाशं चन्द्रकोटि सुशीतलं| अतीव कमनीयंच महाकुंडलिनियुतं|
यस्य ज्ञानोदयस्तत्र मुद्रासाधक उच्यते||"
सहस्त्रार के महापद्म में कर्णिका के भीतर पारद की तरह स्वच्छ निर्मल करोड़ों सूर्य-चंद्रों की आभा से भी अधिक प्रकाशमान ज्योतिर्मय सुशीतल अत्यंत कमनीय महाकुंडलिनी से संयुक्त जो आत्मा विराजमान है उसे जिन्होंने जान लिया है वे मुद्रासाधक हैं|
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(५) शास्त्र के अनुसार पाँचवा मकार मैथुन किसे कहते हैं अब इस पर चर्चा करते हैं ---
आगमसार में इस की व्याख्या कई श्लोकों में है अतः स्थानाभाव के कारण उन्हें यहाँ न लिखकर उनका भावार्थ ही लिख रहा हूँ) .....
मैथुन तत्व ही सृष्टि, स्थिति और प्रलय का कारण है| मैथुन द्वारा सिद्धि और ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है|
नाभि (मणिपुर) चक्र के भीतर कुंकुमाभास तेजस तत्व 'र'कार है| उसके साथ आकार रूप हंस यानि अजपा-जप द्वारा आज्ञाचक्र स्थित ब्रह्मयोनि के भीतर बिंदु स्वरुप 'म'कार का मिलन होता है|
ऊर्ध्व में स्थिति प्राप्त होने पर ब्रह्मज्ञान का उदय होता है, उस अवस्था में रमण करने का नाम ही "राम" है|
इसका वर्णन मुंह से नहीं किया जा सकता| जो साधक सदा आत्मा में रमण करते हैं उनके लिए "राम" तारकमंत्र है|
हे देवि, मृत्युकाल में राम नाम जिसके स्मरण में रहे वे स्वयं ही ब्रह्ममय हो जाते हैं|
यह आत्मतत्व में स्थित होना ही मैथुन तत्व है|
अंतर्मुखी प्राणायाम आलिंगन है|
स्थितिपद में मग्न हो जाने का नाम चुंबन है|
केवल कुम्भक की स्थिति में जो आवाहन होता है वह सीत्कार है|
खेचरी मुद्रा में जिस अमृत का क्षरण होता है वह नैवेद्य है|
अजपा-जप ही रमण है|
यह रमण करते करते जिस आनंद का उदय होता है वह दक्षिणा है|
यह पंचमकार की साधना भगवान शिव द्वारा पार्वती जी को बताई गयी है|
(संक्षिप्त में आत्मा में यानि राम में सदैव रमण ही तंत्र शास्त्रों के अनुसार मैथुन है न कि शारीरिक सम्भोग)
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(Note: यह साधना उन को स्वतः ही समझ में आ जाती है जो नियमित ध्यान साधना करते हैं| योगी नाक से या मुंह से सांस नहीं लेते| वे सांस मेरुदंड में सुषुम्ना नाड़ी में लेते है| नाक या या मुंह से ली गई सांस तो एक प्रतिक्रया मात्र है उस प्राण तत्व की जो सुषुम्ना में प्रवाहित है| जब सुषुम्ना में प्राण तत्व का सञ्चलन बंद हो जाता है तब सांस रुक जाती है और मृत्यु हो जाती है| इसे ही प्राण निकलना कहते हैं|
अतः अजपा-जप और ध्यान का अभ्यास नित्य करना चाहिए|)
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ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
१४ मार्च २०१३

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