भगवत्-प्राप्ति ही सबसे बड़ी सेवा है ---
.
मेरे व्यक्तिगत विचार, निजानुभूतियों पर आधारित हैं, किसी अन्य की नकल नहीं हैं। हम दूसरों की सेवा करने को ईश्वर की सेवा मानते हैं, यह सत्य है, क्योंकि प्रत्येक जीवात्मा -- परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। मातृरूप में परमात्मा स्वयं को जगन्माता के रूप में व्यक्त करते हैं। प्राणतत्व के रूप में जगन्माता स्वयं ही समस्त जगत को चैतन्य रखे हुए है। वे पूरी सृष्टि की प्राण हैं।
.
परमात्मा के ध्यान में हमारी चेतना इस देह में नहीं रहती, हम समष्टि के साथ एक हो जाते हैं। इस बात को बुद्धि से नहीं, बल्कि अनुभव से ही समझा जा सकता है। उस अवस्था में भगवान स्वयं ही स्वयं का ध्यान करते हैं। परमात्मा सच्चिदानंद हैं। उनके ध्यान में हम स्वयं सच्चिदानंदमय हो जाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने उस स्थिति को ब्राह्मीस्थिति बताया है। योग की भाषा में उसे कूटस्थ-चैतन्य कहते हैं। यह स्थिति ही स्थितप्रज्ञता प्रदान कर हमें ईश्वर का साक्षात्कार कराती है। ईश्वर का साक्षात्कार ही सबसे बड़ी सेवा है जो हम ईश्वर की इस सृष्टि में कर सकते हैं। यह सभी प्राणियों का कल्याण करती है। दूसरे शब्दों में भगवत्-प्राप्ति ही सबसे बड़ी सेवा है जो हम भगवान की इस सृष्टि की कर सकते हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ मार्च २०२४
No comments:
Post a Comment