हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, रावण, कंस और महिषासुर जीवित हैं। वे अन्यत्र कहीं भी नहीं, मेरे ही अवचेतन मन में छिपे हुए हैं, और -- अज्ञान, काम-वासना, राग-द्वेष, अहंकार, लोभ, और क्रोध के रूप में व्यक्त हो रहे हैं। उनका बध करने में मैं असमर्थ हूँ, अतः परमात्मा की शरण ले रहा हूँ। जिन्होंने यह सृष्टि बनाई है। समर्पण द्वारा उनके साथ एक हुए बिना मेरी कोई गति नहीं है। मेरे प्रभु, मुझ अकिंचन की रक्षा करें।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इन्हें नर्क का द्वार बताया है --
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥१६:२१॥"
अर्थात् -- काम, क्रोध और लोभ ये आत्मनाश के त्रिविध द्वार हैं, इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥
This door of hell, which is the destroyer of the soul, is of three kinds -- passion, anger and also greed. Therefore one should forsake these three.
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अब तो जीने, मरने की सी स्थिति आ गई है। हम अपने स्वधर्म पर दृढ़ रहकर उसका दृढ़ता से पालन करेंगे तो ही धर्म हमारी रक्षा करेगा। यह भगवान का आश्वासन है --
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् -- इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है।।
On this Path, endeavour is never wasted, nor can it ever be repressed. Even a very little of its practice protects one from great danger.
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हम आत्मा हैं जिसका स्वधर्म -- परमात्मा की प्राप्ति है। यही हमारा उच्चतम लक्ष्य है। परमात्मा की सर्वोच्च अभिव्यक्ति "परमशिव" है, जिसकी अनुभूति बहुत गहरे ध्यान में ही होती है। अन्यथा वे अचिंत्य और अपरिभाष्य है। सभी आचार्यों को मैं नमन करता हूँ। ब्रह्मविद्या (भूमा) के प्रथम आचार्य भगवान सनतकुमार, उनके शिष्य देवर्षि नारद जो भक्ति के आचार्य हैं, और भगवान श्रीकृष्ण को नमन जिन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता में कर्म, भक्ति और ज्ञान का उपदेश दिया है। भगवान शिव को नमन जो गुरु रूप में दक्षिणामूर्ति हैं, और समय समय पर अपनी अनुभूतियाँ करा कर हमें प्रेरणा देते रहते हैं। । ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
६ मार्च २०२५
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