आत्मज्ञान (Self-Realization) ही परम धर्म है ---
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अद्वैत भाव में हम यह भौतिक देह नहीं, भगवान की अनंत विराटता और परमप्रेम हैं। हमें भगवान से कुछ भी नहीं चाहिए। हम जहाँ भी हैं, जैसे भी हैं, उनके साथ एक हैं। हम अद्वितीय, अनुपम, और अनन्य हैं। हम से अन्य कोई भी या कुछ भी नहीं है। हम और हमारे प्रभु एक हैं। इस सृष्टि में जो कुछ भी अस्तित्व में है, वह भगवान स्वयं हैं। उन्होने कुछ भी नहीं बनाया, सब कुछ वे स्वयं ही बन गए हैं। जो वे हैं, वही हम हैं।
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द्वैत भाव का भी एक आनंद है। उस से हम स्वयं को वंचित न करें। भगवान सकुशल हैं तो हम भी सकुशल हैं। भगवान जहाँ भी हैं, मजे से रहें। हम पर उनकी कृपा हो या न हो, अपनी सृष्टि पर तो बराबर बनी रहे। वे किसके हों? यह उनकी समस्या है, हमारी नहीं। वे अपने भक्तों के भी हैं और अपनी सारी सृष्टि के भी।
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भगवान के गहन ध्यान में हम कोई व्यक्ति नहीं, एक चेतना मात्र रह जाते हैं, जो भगवान के साथ एक है। हम न तो पुरुष हैं और न स्त्री, एक शाश्वत आत्मा हैं। आत्मा के कोई लिंग नहीं होता। भगवान का ध्यान ही आनंद है। यह एक अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं। एकमात्र आकर्षण सिर्फ भगवान का ही रहे, अन्य किसी का भी नहीं। हम अपनी आत्मा में स्थायी रूप से स्थित रहें।
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अब कुछ सांसारिक बात करते हैं। शीतकाल आरंभ हो गया है। दिन में एक समय बाजरे के आटे से बनाई हुई रोटी खाएं। इससे शरीर को उष्णता प्राप्त होगी। सफ़ेद चीनी के स्थान पर गुड़ का प्रयोग करें। प्रातःकाल में उगते हुये सूर्य की धूप का भी सेवन करें। खुली और स्वच्छ हवा में रोज टहलें। स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। दिन का आरंभ और समापन भगवान के ध्यान से करें। पूरे दिन उन्हें स्मृति में रखें। उन्हें जीवन का कर्ता और केन्द्रबिन्दु बनाएँ। जीवन ठीक से कटेगा।
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प्रार्थना : "किसको नमन करूँ? सब कुछ तो मैं ही हूँ। भगवान मुझ में, और मैं भगवान में हूँ। हे प्रभु, स्वयं को मुझ में पूर्ण रूप से व्यक्त करो। मुझे अपने साथ एक करो। आपके बिना यह जीवन साक्षात एक नर्ककुंड है। मुझे अपने साथ एक ही रखो।"
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
९ नवंबर २०२३
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पुनश्च: मैं अद्वितीय हूँ। मुझसे अन्य कोई नहीं है। मैं यह नश्वर देह नहीं, परमशिव हूँ, नारायण हूँ, और परमब्रह्म हूँ। सारा ब्रह्मांड मेरा शरीर है। मैं प्रभु की अनतता और उनका आनंद हूँ। ॐ ॐ ॐ !!
हम अपनी आत्मा में स्थायी रूप से स्थित रहें ---
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परमात्मा के गहरे ध्यान में हम यह व्यक्ति नहीं, एक चेतना मात्र रह जाते हैं जो परमात्मा के साथ एक है। हम न तो पुरुष रहते हैं और न स्त्री, आत्मा के कोई लिंग नहीं होता। परमात्मा के ध्यान में ही आनंद है। यह एक अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं। एकमात्र आकर्षण सिर्फ परमात्मा का ही रहे, अन्य किसी का भी नहीं। इस सृष्टि में कुछ भी निराकार नहीं है, जो भी सृष्ट हुआ है वह साकार है। भगवान के साकार रूप ही मेरे आराध्य हैं।
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