क्या परमात्मा से भी अधिक कोई अन्य वस्तु प्रिय हो सकती है ?
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भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में कहा है .........
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः |
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ||"
जिस (आत्म) लाभ को पाने के पश्चात् हम पाते हैं कि इससे अधिक अन्य कुछ भी प्राप्य नहीं है| उस (आत्म तत्व) में स्थित होने के पश्चात् बड़े से बड़ा दुःख भी हमें विचलित नहीं कर सकता|
इस से हम अंदाज़ कर सकते हैं की हम कहाँ और किस स्थिति में खड़े हैं|
कई बार मन में लालच आ जाता है, और हमें परमात्मा से भी अधिक लाभ अन्य वस्तुओं या अनुष्ठानों में दृष्टिगत होने लगता है जो यह स्पष्ट बताता है कि हम अभी तक निःस्पृह नहीं हुए हैं|
क्या परमात्मा से भी अधिक कोई अन्य वस्तु प्रिय हो सकती है ?
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भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में कहा है .........
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः |
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ||"
जिस (आत्म) लाभ को पाने के पश्चात् हम पाते हैं कि इससे अधिक अन्य कुछ भी प्राप्य नहीं है| उस (आत्म तत्व) में स्थित होने के पश्चात् बड़े से बड़ा दुःख भी हमें विचलित नहीं कर सकता|
इस से हम अंदाज़ कर सकते हैं की हम कहाँ और किस स्थिति में खड़े हैं|
कई बार मन में लालच आ जाता है, और हमें परमात्मा से भी अधिक लाभ अन्य वस्तुओं या अनुष्ठानों में दृष्टिगत होने लगता है जो यह स्पष्ट बताता है कि हम अभी तक निःस्पृह नहीं हुए हैं|
क्या परमात्मा से भी अधिक कोई अन्य वस्तु प्रिय हो सकती है ?
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