आत्माराम यानि आत्मा में रमण करने वाले, आत्मा में तृप्त और आत्मा में संतुष्ट व्यक्ति के लिये कोई सांसारिक कर्तव्य नहीं है ---
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गीता में भगवान कहते हैं --
"यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥३:१७॥"
न चास्य सर्वभूतेषु कश्िचदर्थव्यपाश्रयः॥३:१८॥"
अर्थात् -- "परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमने वाला आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं रहता॥"
"इस जगत् में उस पुरुष का कृत और अकृत से कोई प्रयोजन नहीं है और न वह किसी वस्तु के लिये भूतमात्र पर आश्रित होता है॥"
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नारद भक्ति सूत्र के प्रथम अध्याय का छठा सूत्र भक्त की तीन अवस्थाओं के बारे में बताता है ..... "यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति|" यानि उस परम प्रेम रूपी परमात्मा को जानकर यानि पाकर भक्त प्रेमी पहिले तो मत्त हो जाता है, फिर स्तब्ध हो जाता है और अंत में आत्माराम हो जाता है, यानि आत्मा में रमण करने लगता है|
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आत्मज्ञाननिष्ठ योगी जो केवल आत्मा में ही तृप्त, और संतुष्ट है, जिसका आत्मा में ही प्रेम है, विषयोंमें नहीं, ऐसे आत्मज्ञानी के लिये कुछ भी कर्तव्य नहीं है। सभी कर्मों का प्रयोजन उसमें पूर्ण हो जाता है। अत जगत् के सामान्य नियमों में उसे बांधा नहीं जा सकता। वह ईश्वरीय पुरुष बनकर पृथ्वी पर विचरण करता है।
उस परमात्मा में प्रीति वाले पुरुष का इस लोक में कर्म करने से कोई प्रयोजन ही नहीं रहता है। कर्म न करनेसे उसको प्रत्यवाय-प्राप्ति रूप या आत्म-हानि रूप अनर्थ की प्राप्ति नहीं होती।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ सितंबर २०२४
परमात्मा का ध्यान और उससे प्राप्त आनंद सर्वोच्च सत्संग है ---
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हमारा मेरुदण्ड हमारी पूजा की वेदी और मंडप है। सहस्त्रार-चक्र में दिखाई दे रही ज्योति "विष्णुपद" है। इसका ध्यान -- गुरु-चरणों का ध्यान है। इसमें स्थिति -- श्रीगुरुचरणों में आश्रय है। कुंडलिनी महाशक्ति का सहस्त्रार से भी ऊपर उठकर अनंत महाकाश से परे परमशिव से स्थायी मिलन जीवनमुक्ति और मोक्ष है। यही अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित हो जाना है।
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जब यह दृढ़ अनुभूति हो जाये कि मैं यह भौतिक शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हूँ, उसी समय हमारा स्वयं का पिंडदान हो जाता है। मूलाधारस्थ कुंडलिनी "पिंड" है। गुरु-प्रदत्त विधि से बार-बार कुंडलिनी महाशक्ति को मूलाधार-चक्र से उठाकर सहस्त्रार में भगवान विष्णु के चरण-कमलों (विष्णुपद) में अर्पित करना यथार्थ "पिंडदान" है। इसे श्रद्धा के साथ करना स्वयं का श्राद्ध है।
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अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित हो जाना मोक्ष है। परब्रह्म ही जीव और जगत् के सभी रूपों में व्यक्त है। वही जीवरूप में भोक्ता है और वही जगत रूप में भोग्य।
आत्मा शाश्वत है। जीवात्मा अपने संचित व प्रारब्ध कर्मफलों को भोगने के लिए बार-बार पुनर्जन्म लेती है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति है। जब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती तब तक संचित और प्रारब्ध कर्मफलों से कोई मुक्ति नहीं है। ये सनातन नियम हैं जो इस सृष्टि को चला रहे हैं। यह हमारा सनातन धर्म है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ सितंबर २०२४