भगवान की भक्ति में आनंद क्यों और कैसे प्राप्त होता है? ---
.
नारद-भक्ति-सूत्रों में भगवान से परमप्रेम को भक्ति कहा गया है, जो अमृतस्वरूपा भी है। शांडिल्य-सूत्रों में ईश्वर के प्रति परम अनुराग को भक्ति कहा गया है।
>>> भक्ति -- हमारे हृदय के गहनतम प्रेम की स्वभाविक अनुभूति और अभिव्यक्ति है। इस प्रेम को जब हम सम्पूर्ण सृष्टि की अनंतता में विस्तृत कर देते हैं, तब वही प्रेम -- आनंद के रूप में लौट कर बापस हमारे पास आ जाता है। <<<
.
सारा अस्तित्व ही भगवान विष्णु है। भगवान विष्णु स्वयं ही यह विश्व बन गए हैं। तत्व रूप में शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है। हम ध्यान शिव का करें या विष्णु का, या विष्णु के अवतारों का, फल एक ही है। मैं तो वही बता सकता हूँ जिसका मैं स्वयं अनुसरण करता हूँ। बाकी सब मैंने भुला दिया है।
.
शिवभाव में स्थित होने के लिए सर्वप्रथम गुरु महाराज को मानसिक रूप से प्रणाम कर के, परमशिव के सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्मरूप का ध्यान भ्रूमध्य में करें। हमारी बंद आँखों के अंधकार के पीछे एक ज्योति है , उसका विस्तार सारे ब्रह्मांड में, सारी सृष्टि में कर दें। वह ज्योति ही हम स्वयं हैं, यह नश्वर देह नहीं। इस नश्वर देह को भुला दें और स्वयं ज्योतिर्मय ब्रह्मरूप में स्थित होकर सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म का अजपा-जप द्वारा ध्यान करें। अजपा-जप को ही हंसःयोग, और हंसवतिऋक भी कहते हैं।
.
सर्वव्यापी शिवमय होकर भ्रूमध्य में पूर्ण भक्ति से ध्यान करते करते बंद आँखों के अंधकार के पीछे एक न एक दिन प्रणव से लिपटी हुई ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है। वह ब्रह्मज्योति फिर कभी नष्ट नहीं होती। यही वह कूटस्थ है जिसका उल्लेख भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अनेक बार किया है। योगी साधक इसी सर्वव्यापी कूटस्थ ज्योति के सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करते हैं, और नादरूप में सुनाई दे रही प्रणव की ध्वनि का श्रवण करते हैं। तंत्र साधक इस ज्योति को ब्रह्मयोनि कहते हैं। इस ज्योति पर ध्यान करते करते यह ज्योति एक पंचमुखी श्वेत नक्षत्र में परिवर्तित हो जाती है। यह पंचमुखी शिव का प्रतीक है। इस नक्षत्र का भेदन करने पर योगी की चेतना परमात्मा के साथ एक हो जाती है। आज्ञाचक्र और सहस्त्रारचक्र के मध्य के भाग को परासुषुम्ना कहते हैं। जीवात्मा का निवास वहीं होता है। वहीं सारी सुप्त सिद्धियाँ और विभूतियाँ हैं। अपनी चेतना को हर समय वहीं रखने का अभ्यास करें।
.
अंत में सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात कहना चाहता हूँ >>>
***** परमात्मा की दृष्टि में सबसे अधिक महत्व हमारी भक्ति और समर्पण का है, अन्य सब गौण हैं। भक्ति और समर्पण में पूर्णता होगी तो अन्य सारी कमियों की ओर भगवान देखते भी नहीं हैं। अतः कौन क्या कहता है, इसका महत्व नहीं है। महत्व है परमात्मा की उपस्थिती और हमारे प्रेम व समर्पण का। तभी भगवान की विशेष परम कृपा होती है।
गीता में भगवान कहते हैं --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् -- "मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥"
इस श्लोक पर आचार्य शंकर के भाष्य का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है -- "मुझ में चित्त वाला हो कर तूँ समस्त कठिनाइयों को अर्थात् जन्ममरणरूप संसार के समस्त कारणों को मेरे अनुग्रह से तर जायगा -- सबसे पार हो जायगा। परंतु यदि तूँ मेरे कहे हुए वचनों को अहंकार से 'मैं पण्डित हूँ' ऐसा समझकर नहीं सुनेगा/ग्रहण नहीं करेगा तो नष्ट हो जायगा -- नाश को प्राप्त हो जायगा॥" *****
.
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ अगस्त २०२३
No comments:
Post a Comment