स्वयं को विकारों से कैसे दूर रखें ?
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"हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम॥" लगे रहो, लगे रहो, लगे रहो, अपने प्रयासों में लगे रहो। कर्मों की डोर एक दिन अवश्य कटेगी। पतंग उड़ती है, उड़ती है, और यही सोचती है कि मैं लगातार उड़ती ही रहूँ। लेकिन कर्मों की डोर उसे खींच कर बापस ले आती है। वैसे ही हम सदा प्रयास तो यही करते हैं कि विषय-वासनाएँ, भय, लोभ, क्रोध, अहंकार व सब तरह की कमियाँ दूर हों, और वैराग्य जागृत हो। लेकिन सारे विकार पता नहीं कहाँ से फिर बार बार घूम फिर कर बापस लौट आते हैं? सिद्धान्त रूप से तो हम कहते हैं कि परमात्मा ही सर्वस्व हैं, और हम उनके साथ अपरिछिन्न रूप से एक हैं। परमात्मा में दृढ़ आस्था भी है, और श्रद्धा-विश्वास भी है। सब कुछ होने पर भी कभी कभी हम पाते हैं कि सारा गुड़ गोबर हो गया।
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इसका कारण है हमारे पूर्व जन्मों में अर्जित कर्मफलों की डोर। और कुछ भी या अन्य कोई भी कारण नहीं है। सारे कर्म और उनके फल कटेंगे, कटेंगे, अवश्य कटेंगे, और अवश्य कटेंगे।
"करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत-जात से सिल पर पड़त निशान॥"
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पहले हम कुएँ से पानी भरते थे, वहाँ पत्थर की शिलाओं पर रस्सी के आने-जाने से निशान पड़ जाते थे। आजकल की पीढ़ी को यह नहीं पता। पुराने जमाने के मंदिरों में दर्शनार्थियों के आने-जाने से ही पत्थरों की शिलाएँ घिस जाती थीं। यह सब तो मैंने अपनी आँखों से देखा है। भक्ति और साधना से सारे कर्म कट जाएँगे।
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एक बात बार बार कहता हूँ कि अपने घर में या कहीं भी जहाँ आप रहते हैं, एक छोटा सा स्थान आरक्षित कर लें स्वयं के लिए। और वहीं बैठ कर अपनी भजन-बंदगी करें। वह स्थान जागृत हो जाएग, और जब भी वहाँ बैठोगे, मन अपने आप ही भक्ति से भर जायेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ तत्सत् !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२० नवंबर २०२४
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