Sunday 9 January 2022

विषयों के भोग में कोई पाप नहीं है, चिंतन और कामना में ही पाप है ---

विषयों के भोग में कोई पाप नहीं है, चिंतन और कामना में ही पाप है ---
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मैं जो लिख रहा हूँ, वह मेरा अनुभूतिजन्य सत्य है, कोई थोथी कल्पना या बुद्धि-विलास नहीं। मैं कोई बड़ी-बड़ी बातें नहीं कर रहा, बल्कि जीवन में जो भी अनुभूत किया है, वही अपनी अति-अति अल्प और अति-अति सीमित क्षमतानुसार लिखने का स्वभाविक प्रयास कर रहा हूँ। कई बार मुझे अपने पूर्व जन्म की स्मृतियाँ भी आ जाती हैं। पूर्व जन्मों के शत्रु और मित्र भी कई बार इस जन्म में मिले हैं, जिन्होंने मेरा खूब अहित और हित किया है। विगत के सारे संस्कारों से मुक्त होकर अब वर्तमान में जीना चाहता हूँ। सारे बंधनों से मुक्त हो कर जीवन के एकमात्र परम सत्य परमात्मा को जीवन में व्यक्त करने की अभीप्सा (एक अतृप्त प्यास और तड़प) है, जो तृप्त हो। जिसे हम अभीप्सा कहते हैं, वह एक स्वभाविक अतृप्त प्यास और तड़प है, कोई कामना नहीं।
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पुनर्जन्म एक सत्य है। इस शरीर की मृत्यु के समय जैसी भावना होती है वैसा ही अगला जन्म होता है। कर्मफलों का मिलना भी एक सत्य है, जिसे कोई नकार नहीं सकता। कर्मफलों को भोगने के लिए ही पुनर्जन्म होता है। कर्मफलों से मुक्त होने की एक विधि है, जो इतनी आसान नहीं है। उसमें समय लगता है। वह किसी कर्मकांड से नहीं, बल्कि आध्यात्मिक उपासना से सम्पन्न होती है।
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यह सबको पता होना चाहिए कि "कर्म" क्या हैं। हमारे विचार और भाव ही हमारे कर्म हैं, जो हमारे खाते में जुड़ते रहते हैं। जो कुछ भी हम सोचते हैं, वे ही हमारे कर्म हैं। यह सृष्टि द्वैत से बनी है| सृष्टि के अस्तित्व के लिए विपरीत गुणों का होना अति आवश्यक है। प्रकाश का अस्तित्व अन्धकार से है और अन्धकार का प्रकाश से। मनुष्य जैसा और जो कुछ भी सोचता है वह ही "कर्म" बनकर उसके खाते में जमा हो जाता है। यह सृष्टि हमारे विचारों से बनी है। हमारे विचार ही घनीभूत होकर हमारे चारों ओर व्यक्त हो रहे हैं। ये ही हमारे कर्मों के फल हैं।
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परमात्मा की सृष्टि में कुछ भी बुरा या अच्छा नहीं है। कामना ही बुरी है| भगवान श्रीकृष्ण के निम्न वचनों का स्वाध्याय कीजिये। --
"ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥२:६२॥
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।२:६३॥"
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।२:६४॥"
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।२:६५॥"
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।२:६६॥"
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।२:६७॥"
अर्थात् - विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है। वशीभूत अन्तःकरण वाला कर्मयोगी साधक रागद्वेष से रहित अपने वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता हुआ अन्तःकरण की निर्मलता को प्राप्त हो जाता है। निर्मलता प्राप्त होने पर साधक के सम्पूर्ण दुःखों का नाश हो जाता है। ऐसे शुद्ध चित्तवाले साधक की बुद्धि निःसन्देह बहुत जल्दी परमात्मा में स्थिर हो जाती है। जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्य की व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती और व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे उसमें कर्तव्यपरायणता की भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है? अपने-अपने विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक ही इन्द्रिय जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह अकेला मन जल में नौका को वायु की तरह इसकी बुद्धि को हर लेता है।
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विषय मिलने पर विषय का प्रयोग आसक्ति को पैदा नहीं करेगा। परन्तु जब हम विषय को मन में सोचते हैं तो उसके प्रति कामना जागृत होगी। यह कामना ही हमारा "बुरा कर्म" है, और निष्काम रहना ही "अच्छा कर्म" है। हम बुराई बाहर देखते हैं, अपने भीतर नहीं। हम विषयों को दोष देते है| पर दोष विषयों में नहीं बल्कि उनके चिंतन में है।
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कामनाएँ कभी पूर्ण नहीं होतीं। उनसे ऊपर उठने का एक ही उपाय है, और वह है -- "निरंतर हरिः स्मरण।" सांसारिक कार्य भी करते रहो पर प्रभु को समर्पित होकर। इससे क्या होगा? भगवान कहते हैं --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।१८:५८॥"
अर्थात् - मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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हम अपनी इस सृष्टि का रूपांतरण भी कर सकते हैं। चारों ओर की सृष्टि जो हमें जैसी भी दिखाई दे रही है वह हम सब के विचारों का ही घनीभूत रूप है। हम सब परमात्मा के अंश हैं, अतः हम जैसी भी कल्पना करते हैं, जैसी भी कामना करते हैं, व जैसे भी विचार रखते हैं, वे ही धीरे धीरे घनीभूत होते हैं, और वैसी ही सृष्टि का निर्माण होने लगता है। किसी के विचार अधिक शक्तिशाली होते हैं, किसी के कम। जिस के विचार अधिक शक्तिशाली होते हैं, वे इस सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया में अपना अधिक योगदान देते हैं। हम अपने चारों ओर के घटनाक्रमों, वातावरण और परिस्थितियों से प्रसन्न नहीं हैं और उनका रूपांतरण करना चाहते हैं तो निश्चित रूप से अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देने का प्रयास करें। आध्यात्मिक रूप से यह सृष्टि प्रकाश और अन्धकार का खेल है, वैसे ही जैसे सिनेमा के पर्दे पर जो दृश्य दिखाई देते हैं वे प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं। अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान हम उस प्रकाश में वृद्धि द्वारा ही कर सकते हैं।
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इस विषय पर और अधिक लिखना मेरी सीमित और अल्प क्षमता से परे है। स्वयं को व्यक्त करने का यह मेरा स्वभाव है। सभी का मंगल हो।
ॐ नमः शिवाय। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
कृपा शंकर
९ जनवरी २०२२

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