साधनाकाल के आरंभ में हमारा मेरुदंड ही हमारी पूजा की वेदी बन जाता है ---
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एक व्यक्तिगत और निजी अनुभव है| साधना के आरंभ काल में मन बहुत अधिक चंचल था और इधर-उधर खूब भागता था| बिल्कुल भी मन नहीं लगता था| किसी मित्र ने मुझे हनुमान जी के बारे में एक पुस्तक दी जो बड़ी अच्छी लगी| फिर मैंने एक प्रयोग किया| मानसिक रूप से हनुमान जी को पीठ पीछे खड़ा कर दिया| उनके हाथ में गदा भी थी| उनसे प्रार्थना की कि किसी फालतू विचार को मत आने देना, और मन भी इधर-उधर भागे तो भागने मत देना| साथ में हनुमान जी के बीजमंत्र का जप भी करता रहा| इस से बहुत अधिक फर्क पड़ा| फिर देखा कि हनुमान जी तो मेरुदंड के भीतर ही आ गए हैं| जब मैं साँस लेता तो हनुमान जी उड़ते हुए अपनी विजय-मुद्रा में मेरी कमर के नीचे से भीतर ही भीतर ऊपर उठते हुए खोपड़ी के ऊपर तक चले जाते, बड़ी शान से वहाँ कुछ देर रुकते, और जब मैं साँस छोड़ता तो कमर के भीतर ही भीतर नीचे आ जाते| धीरे-धीरे हनुमान जी का साकार रूप तो चला गया पर गहन रूप से उनका प्राण-तत्व, सुषुम्ना नाड़ी के भीतर स्थायी रूप से बस गया| इस से बड़ा लाभ मिला और कालांतर में यह प्राण-तत्व ही साधना का आधार बना|
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एक सत्संग में एक महात्मा जी ने एक दूसरी प्रभावशाली विधि भी बताई| उन्होने बताया कि ध्यान मुद्रा में गुदा का तनिक संकुचन कर मूलाधार पर मानसिक जप करें -- "लं", फिर तनिक ऊपर उठाकर स्वाधिष्ठान पर -- "वं", मणिपुर पर -- रं", अनाहत पर -- "यं", विशुद्धि पर -- "हं", आज्ञा पर -- "ॐ", और सहस्त्रार पर कुछ अधिक जोर से -- "ॐ"| कुछ पल भर रुककर विपरीत क्रम से जप करते हुए नीचे आइये| कुछ पल भर रुकिए और इस प्रक्रिया को सहज रूप से जितनी बार कर सकते हैं कीजिये| इस विधि से भी बड़ा लाभ हुआ|
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प्राण-तत्व द्वारा मेरुदंड में की जाने वाली साधनाओं के काल में आचार-विचार का शुद्ध होना बड़ा आवश्यक है, अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि ही होती है| भगवान से उनके प्रेम के अतिरिक्त अन्य किसी भी तरह की कामना ना करें| हृदय में जो प्रचंड अग्नि जल रही है उसे दृढ़ निश्चय और सतत् प्रयास से निरंतर प्रज्ज्वलित रखिए| आधे-अधूरे मन से किया गया कोई प्रयास सफल नहीं होगा| साधना निश्चित रूप से सफल होगी, चाहे यह देह रहे या न रहे ...... इस दृढ़ निश्चय के साथ साधना करें, आधे अधूरे मन से नहीं| परमात्मा का स्मरण करते करते यदि मरना भी पड़े तो वह इस नारकीय सांसारिक जीवन जीने से तो अच्छा है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
८ जुलाई २०२०
यदि पर्वत शिखर से बहता हुआ जल नीचे खड्डों में आता है तो खड्डे पहाड़ से क्या शिकायत कर सकते है? स्वयं की रक्षा के लिए खड्डे को ही शिखर बनना पडेगा| निर्बल को सब सताते हैं| संगठित व सशक्त समाज और राष्ट्र की ओर आँख उठाकर देखने का साहस किसी में नहीं होता| संसार में सब अपना ही हित देखते हैं, कोई किसी का स्थायी शत्रु और मित्र नहीं होता| जो भावुकता में निर्णय लिए जाते हैं वे आत्मघाती होते हैं| हर दृष्टि से हम स्वयं, अपने समाज और राष्ट्र के साथ-साथ संगठित, सशक्त और शक्तिशाली बनें|
ReplyDeleteॐ तत्सत !!
भारत का वेदान्त-दर्शन समष्टि के हित की बात करता है| यदि पूरा विश्व ही समष्टि के हित की सोचे तो यह सृष्टि ही स्वर्ग बन जाएगी पर ऐसा नहीं होता क्योंकि यह सृष्टि विपरीत गुणों से बनी है| सारा भौतिक जगत ही सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा से निर्मित है| हम चाहे जितनी भी सद्भावना सब के लिए रखें, लेकिन हिंसक और दुष्ट प्राणियों के साथ नही रह सकते| बुराई और भलाई दोनों ही सदा विद्यमान रहेगी| हमें ही इस द्वंद्व से ऊपर उठना पडेगा| फिर भी, चाहे जितनी भी विपरीतता हो, हमें समष्टि के हित में ही सोचना चाहिए| इसी में हमारा हित है|
ReplyDeleteॐ तत्सत !!