Tuesday, 6 July 2021

मूल तत्व का अन्वेषण कैसे करें? वहाँ तक कैसे पहुँचें? ---

मूल तत्व का अन्वेषण कैसे करें? वहाँ तक कैसे पहुँचें? .....
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कोई मेरी बात का बुरा न माने, मैं तो इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि संसार से विरक्त हुआ व्यक्ति ही परमात्मा के तत्व को समझ सकता है, मेरे जैसा कोई संसारी व्यक्ति नहीं| मैं अपने इस विचार पर दृढ़ हूँ| यह विषय हरिःकृपा से ही समझा जा सकता है| इसके लिए किन्हीं ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से ही मार्गदर्शन लेना पड़ेगा| फिर भी अपनी अति-अति अल्प और अति-अति सीमित बुद्धि से जो कुछ भी मामुली थोड़ा सा आभास है, उसे व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ|
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हमें एक न एक दिन अपने मूल में लौटना ही पड़ेगा| हम सब शाश्वत जीवात्मायें, परमात्मा के अंश हैं| जहाँ से हम आए हैं, उन परमात्मा में, हमें बापस लौटना ही पड़ेगा| परमात्मा ही मूल तत्व हैं, जहाँ से हम आए हैं| जब तक बापस न लौटेंगे, तब तक यही भटकाव चलता रहेगा| यह अवधि-चक्र सामान्यतः दस लाख वर्षों का होता है| पर हर मनुष्य-जीवन में नए-नए कर्मों की सृष्टि भी होती रहती है अतः उनका फल भुगतने के लिए इस अवधि-चक्र का विस्तार भी होता रहता है| छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय के आठवें खंड का मंत्र क्रमांक ४ हमें अपने मूल के अन्वेषण को कहता है| बृहदारण्यकोपनिषद में भी यह कहा गया है| अब प्रश्न यह उदित होता है कि हम अपने मूल में कैसे पहुंचे, और हमारा मूल कहाँ है?
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्| छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्||१५:१||"
"अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः|
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके||१५:२||"
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा|
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा||१५:३||"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः|
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी||१५:४||"
"निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः|
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्||१५:५||"
अर्थात ..... श्री भगवान् ने कहा -- (ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को) ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं; जिसके पर्ण छन्द अर्थात् वेद हैं, ऐसे (संसार वृक्ष) को जो जानता है, वह वेदवित् है||
उस वृक्ष की शाखाएं गुणों से प्रवृद्ध हुईं नीचे और ऊपर फैली हुईं हैं; (पंच) विषय इसके अंकुर हैं; मनुष्य लोक में कर्मों का अनुसरण करने वाली इसकी अन्य जड़ें नीचे फैली हुईं हैं||
इस (संसार वृक्ष) का स्वरूप जैसा कहा गया है वैसा यहाँ उपलब्ध नहीं होता है, क्योंकि इसका न आदि है और न अंत और न प्रतिष्ठा ही है। इस अति दृढ़ मूल वाले अश्वत्थ वृक्ष को दृढ़ असङ्ग शस्त्र से काटकर ...
(तदुपरान्त) उस पद का अन्वेषण करना चाहिए जिसको प्राप्त हुए पुरुष पुन: संसार में नहीं लौटते हैं। "मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ, जिससे यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है"||
जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है, जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है, जो अध्यात्म में स्थित हैं जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं और जो सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हो गये हैं, ऐसे सम्मोह रहित ज्ञानीजन उस अव्यय पद को प्राप्त होते हैं||
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गीता के १४वें अध्याय के तीन मंत्र भी इस विषय पर प्रकाश डालते हैं ....
"ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः| जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः||१४:१८||"
"नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति| गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति||१४:१९||"
"गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्| जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते||१४:२०||"
अर्थात ..... सत्त्वगुण में स्थित पुरुष उच्च (लोकों को) जाते हैं; राजस पुरुष मध्य (मनुष्य लोक) में रहते हैं और तमोगुण की अत्यन्त हीन प्रवृत्तियों में स्थित तामस लोग अधोगति को प्राप्त होते हैं||
जब द्रष्टा (साधक) पुरुष तीनों गुणों के अतिरिक्त किसी अन्य को कर्ता नहीं देखता, अर्थात् नहीं समझता है और तीनों गुणों से परे मेरे तत्व को जानता है, तब वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है||
यह देही पुरुष शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप तीनों गुणों से अतीत होकर जन्म, मृत्यु, जरा और दु:खों से विमुक्त हुआ अमृतत्व को प्राप्त होता है||
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यह सारा खेल ही गुणों का है अतः भगवान दूसरे अध्याय में ही गुणों से परे जाने को कह देते हैं.....
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन| निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्||२:४५||"
अर्थात ..... हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत? निर्द्वन्द्व? नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित? योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो||
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श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय की क्रिया-योग साधना हमें त्रिगुणातीत और सब कर्मफलों से मुक्त होने की विधि बताती है| इस विषय पर विस्तार से जानने के लिए "योगी कथामृत" (Autobiography of a Yogi)पुस्तक पढ़ें जिसके लेखक श्री श्री परमहंस योगानन्द हैं| यह पुस्तक किसी भी पुस्तकों की बड़ी दुकान से या on line भी मिल जाएगी| लाहिड़ी महाशय का साहित्य पहले बांग्ला भाषा में ही उपलब्ध था| अब धीरे धीरे हिन्दी में भी मिलना आरंभ हो गया है| सारी सूचना गूगल पर मिल जाएगी|
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मेरा अनुभव यह है कि जिन का रजोगुण प्रधान है, उन्हें अनाहतचक्र पर ध्यान करना चाहिए| जिन का सतोगुण प्रधान है उन्हें आज्ञाचक्र पर ध्यान करना चाहिए| जिन का तमोगुण प्रधान है, उन्हें ध्यान नहीं करना चाहिए| वे तमोगुण से ऊपर उठने के लिए शरणागत होकर भगवान से प्रार्थना करें और भगवान की साकार यानि सगुण आराधना करें| इस युग में हनुमान जी की भक्ति तुरंत फलदायी है| वे हनुमान जी की या भगवान शिव की शरणागत होकर पूजा-पाठ और स्तुति करें|
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मैंने जो लिखा है वह सिर्फ प्रेरणा ही दे सकता है, कोई ज्ञान नहीं| भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण सब गुरुओं के गुरु हैं| उन से बड़ा कोई गुरु नहीं है| मुझ अकिंचन को जो भी ज्ञान है वह उन्हीं का कृपा प्रसाद है| अतः शरणागत होकर उन से मार्गदर्शन की प्रार्थना करें| निश्चित रूप से उन की कृपा होगी|
ॐ तत्सत || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
६ जुलाई २०२०

1 comment:

  1. जितनी एक साधक की पात्रता होती है, उसी के अनुपात में परमात्म-तत्व का ज्ञान साधक को होता है| कर्ताभाव आते ही साधक का पतन हो जाता है| उनके आंशिक तेज को भी सहने की शक्ति मनुष्य देह में नहीं होती| उनका आंशिक तेज भी मनुष्य शरीर को जलाकर भस्म कर सकता है| अतः पात्रता के अनुसार ही उनका बोध होता है|
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    परमात्मा अपना ध्यान हमें निमित्त बनाकर स्वयं ही करते हैं| जरा सा भी कर्ताभाव आते ही साधक का पतन हो जाता है| परमात्म-तत्व को समझाने का अधिकार भी उच्च कोटि के महात्माओं को ही है, सामान्य साधको को नहीं|

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