शबद अनाहत बागा --- (संशोधित व पुनर्प्रेषित).
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जब राम नाम यानि प्रणव की अनाहत ध्वनी अंतर में सुनाई देना आरम्भ कर दे तब पूरी लय से उसी में तन्मय हो जाना चाहिए| सदा निरंतर उसी को पूरी भक्ति और लगन से सुनना चाहिए| भोर में मुर्गे की बाँग सुनकर हम जान जाते हैं कि अब सूर्योदय होने ही वाला है, वैसे ही जब अनाहत नाद अंतर में बांग मारना यानि सुनना आरम्भ कर दे तब सारे संशय दूर हो जाने चाहिएँ और जान लेना चाहिए कि परमात्मा तो अब मिल ही गए हैं| अवशिष्ट जीवन उन्हीं को केंद्र बिंदु बनाकर, पूर्ण भक्तिभाव से उन्हीं को समर्पित होकर व्यतीत करना चाहिए|
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कबीर दास जी के जिस पद की यह अंतिम पंक्ति है वह पूरा पद इस प्रकार है ---
"अवधूत गगन मंडल घर कीजै,
अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नाल रस पीजै॥
मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमनि यों तन लागी।
काम क्रोध दोऊ भये पलीता, तहाँ जोगिनी जागी॥
मनवा जाइ दरीबै बैठा, मगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, सबद अनाहद बागा॥"
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जब भी समय मिले एकांत में पवित्र स्थान में सीधे होकर बैठ जाएँ| दृष्टी भ्रूमध्य में हो, दोनों कानों को अंगूठे से बंद कर लें, छोटी अंगुलियाँ आँखों के कोणे पर और बाकि अंगुलियाँ ललाट पर| आरम्भ में अनेक ध्वनियाँ सुनाई देंगी| जो सबसे तीब्र ध्वनी है उसी को ध्यान देकर सुनते रहो| उसके साथ मन ही मन ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ या राम राम राम राम राम का मानसिक जाप करते रहो| ऐसी अनुभूति करते रहो कि मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि के मध्य में यानि केंद्र में स्नान कर रहे हो| धीरे धीरे एक ही ध्वनी बचेगी उसी पर ध्यान करो और साथ साथ ओम या राम का निरंतर मानसिक जाप करते रहो| दोनों का प्रभाव एक ही है| कोहनियों के नीचे कोई सहारा लगा लो| कानों को अंगूठे से बंद कर के नियमित अभ्यास करते करते कुछ महीनों में आपको खुले कानों से भी वह प्रणव की ध्वनी सुनने लगेगी| यही नादों का नाद अनाहत नाद है|
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इसकी महिमा का वर्णन करने में वाणी असमर्थ है| धीरे धीरे आगे के मार्ग खुलने लगेंगे| प्रणव परमात्मा का वाचक है| यही भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी की ध्वनि है जिससे समस्त सृष्टि संचालित हो रही है| इस साधना को वे ही कर पायेंगे जिन के ह्रदय में परमात्मा के प्रति परमप्रेम और सत्यनिष्ठा है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
२८ जून २०१३
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पुनश्च :---
शबद अनाहत बागा ..... लेख में कुछ शब्द क्लिष्ट हैं, उनका अर्थ लिख रहा हूँ .....
{{ गगन मंडल में घर करने का अर्थ है अपनी चेतना को समष्टि में विस्तृत कर दें| हम यह देह नहीं बल्कि परमात्मा की सर्वव्यापकता और पूर्णता हैं| जो इस चेतना में स्थित हैं वे अवधूत हैं| इसी भाव में स्थित होकर ध्यान करें|
खेचरी मुद्रा में सहस्त्रार से रस टपकता है जो अमृत है| उसका पान कर योगी की देह को अन्न जल की आवश्यकता नहीं होती|
बंक नाल सुषुम्ना नाड़ी है जिसमें जागृत होकर कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होती है|
मूलबंध .... गुदा और जननेन्द्रियों का संकुचन करना है|
सर गगन समाना अर्थात मेरुदंड को उन्नत रखकर ठुड्डी भूमि के समानांतर रखना|
सुखमणि ... आनंद की अनुभूति|
पलीता यानि बारूद में विस्फोट के लिए लगाई आग्नि| काम क्रोध जल कर भस्म हो गए हैं|
जोगिणी जागी अर्थात् कुण्डलिनी जागृत हुई|
दरीबा फारसी भाषा में उस स्थान को कहते थे जहाँ अनमोल मोती बिकते थे| पर कालान्तर में उसे पान खाकर गपशप करने वाले सार्वजनिक स्थान को कहा जाने लगा|
अनाहत शब्द बाँग दे रहा है अतः अब ईश्वर प्राप्ति में कोई संशय नहीं है| }}
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