Wednesday, 22 May 2019

अनन्य भक्ति से बड़ा अन्य कुछ भी नहीं है .....

अनन्य भक्ति से बड़ा अन्य कुछ भी नहीं है .....
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अनन्य का अर्थ है .... जहाँ अन्य कोई नहीं है, जहाँ हमारे में और प्रत्यगात्मा में कोई भेद नहीं है| भगवान कहते हैं ....
"ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च| शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च||१४:२७||
अर्थात् मैं अमृत, अव्यय, ब्रह्म, शाश्वत धर्म, और ऐकान्तिक अर्थात् पारमार्थिक सुख की प्रतिष्ठा हूँ||
(ध्यान करते करते उपास्य के गुण उपासक में भी आ ही जाते हैं)
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गीता में भगवान वासुदेव ने जिस अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति की बात कही है वह अनंत चैतन्य का द्वार है| वह भक्ति जागृत होती है परमप्रेम और गुरुकृपा सेे| भगवान के प्रति परमप्रेम जागृत होते ही मेरुदंड उन्नत हो जाता है, दृष्टिपथ स्वतः ही भ्रूमध्य पथगामी हो जाता है, व चेतना उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र व सहस्त्रार के मध्य) में स्थिर हो जाती है| मेरुदंड में सुषुम्ना जागृत हो जाती है और वहाँ संचारित हो रहा प्राण-प्रवाह अनुभूत होने लगता है| कूटस्थ में ज्योतिर्मय ब्रह्म और अनाहत नाद भी अनुभूत होने लगते हैं| यह ब्राह्मी स्थिति है, ऐसी स्थिति वाले महात्मा बहुत दुर्लभ हैं .....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||"
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इस ब्राह्मी स्थिति के बारे में भगवान कहते हैं .....
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः| निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति||२:७१||"
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
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अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति वह है जहाँ भगवान के सिवाय अन्य कुछ भी प्रिय नहीं हो. भगवान कहते हैं ...
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
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गुरुरूप में हे वासुदेव, आप की कृपा सदैव बनी रहे|
ॐ गुरु ! जय गुरु ! जय गुरु ! जय गुरु !
मुझ अकिंचन के लाखों दोष व नगण्य गुण ..... सब आप को समर्पित हैं| आप से मेरी कहीं पर भी कोई पृथकता नहीं है| मेरा सर्वस्व आपका है, और मेरे सर्वस्व आप हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ मई २०१९

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पुनश्चः :---

भगवान का इतना ऋण है कि उस से कभी उऋण नहीं हो सकता, सिर्फ समर्पित ही हो सकता हूँ, और कुछ भी मेरे बस में नहीं है.
भगवान की इस से बड़ी कृपा और क्या हो सकती है कि उन्होंने मुझे अपना उपकरण बनाया. वे ही मेरे माध्यम से स्वयं को व्यक्त कर रहे हैं. इस ह्रदय में वे ही धड़क रहे हैं, इन फेफड़ों से वे ही साँसे ले रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, कानों से वे ही सुन रहे हैं, इन पैरों से वे ही चल रहे है, और इन हाथों से महाबाहू वे ही सारा कार्य कर रहे हैं. वास्तव में मैं तो हूँ ही नहीं, यह पृथकता का बोध एक मिथ्या आवरण है. सारा अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त अहंकार) व सम्पूर्ण अस्तित्व वे ही हैं. उनकी पूर्णता का बोध सदा बना रहे. ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मई २०१९

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