Saturday, 5 July 2025

असत्य का अंधकार दूर हो, अधर्म का नाश हो, धर्म की जय हो। यह राष्ट्र अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बिराजमान हो। .

असत्य का अंधकार दूर हो, अधर्म का नाश हो, धर्म की जय हो। यह राष्ट्र अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बिराजमान हो।

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इस संसार में किस पर विश्वास करूँ, और किस पर न करूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। सारी आस्था, श्रद्धा और विश्वास परमात्मा में ही सिमट कर रह गई हैं। वे निकटतम से भी निकट, प्रियतम से भी प्रिय, एकमात्र आश्रयस्थल और मेरी एकमात्र धन-संपत्ति हैं। परमात्मा के अतिरिक्त मेरे पास कुछ भी अन्य नहीं है। इस समय मैं उन्हीं में तैर रहा हूँ, उन्हीं में गोते लगा रहा हूँ, और उन्हीं में लोटपोट कर रहा हूँ। इस भौतिक जन्म से पूर्व वे ही मेरे साथ थे, इस शरीर की भौतिक मृत्यु के पश्चात वे ही मेरे साथ रहेंगे, माता-पिता, भाई-बंधु, शत्रु-मित्र, सगे-संबंधी, सब कुछ वे ही थे। उन परमात्मा का ही प्यार था जो इन सब के माध्यम से मुझे मिला। एकमात्र अस्तित्व उन्हीं का है। उनसे अन्य कुछ भी नहीं है।
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आपके सामने मिठाई रखी है, तो उसको खाने में मजा है, न कि उसकी चर्चा करने में। इसलिए परमात्मा की चर्चा करना व्यर्थ है। वायू के रूप में परमात्मा का ही भक्षण कर रहा हूँ, जल के रूप में उन्हें ही पी रहा हूँ, भोजन के रूप में उन्हीं को खा रहा हूँ, उन्हीं परमात्मा में रह रहा हूँ, और उन्हीं परमात्मा में विचरण कर रहा हूँ। सामने का दृश्य भी परमात्मा है, देखने वाला भी परमात्मा है, और यह दृष्टि भी परमात्मा है। उन के सिवाय कुछ भी अन्य नहीं है। एकमात्र कर्ता वे ही हैं।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- " जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जुलाई २०२४

दोनों आँखों के मध्य में स्वर्ग का द्वार है। आज्ञा चक्र का वेधन - स्वर्ग में प्रवेश है ---

 दोनों आँखों के मध्य में स्वर्ग का द्वार है। आज्ञा चक्र का वेधन - स्वर्ग में प्रवेश है।

मेरु दंड को सीधा रखते हुए अपनी चेतना को हर समय भ्रूमध्य में स्थिर रखने का प्रयास करते रहें। जो उन्नत साधक हैं वे अपनी चेतना को सहस्त्रार में रखें।
मैं किसी भी तरह की साधना का उल्लेख अब से भविष्य में कभी भी नहीं करूंगा।
अपनी अपनी गुरु-प्रदत्त साधना करें। कोई कमी होगी तो आपके गुरु महाराज उसका शोधन कर देंगे।
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सांस को स्वाभाविक रूप से चलने दो। ह्रदय को एक अहैतुकी परम प्रेम से भर दो। इस प्रेम को सबके हृदयों में जागृत करने की प्रार्थना करो। जितना हो सके उतना भगवान का ध्यान करो। यह सर्वश्रेष्ठ सेवा है है जो हम समष्टि के लिए कर सकते हैं। जो भी अनुभव होंगे वे आपके निजी अनुभव होंगे।
ॐ तत्सत् !!
६ जुलाई २०२२

जो भी तुमको स्व से दूर करता हो वो पाप है, और जो तुमको स्व की तरफ लाता हो वो पुण्य है ---

 ब्रह्मरंध्रे मनः दत्त्वा क्षणार्द्धमपि तिष्ठति ।

सर्वपाप विनिर्मुक्त्वा स याति परमागति ।।
= ब्रह्मरंध्र में मन देकर क्षणार्द्ध भी कोई रह जाये, सारे पापों से मुक्त होकर वो परमगति को प्राप्त होता है ।
गुरुदेव श्रीलाहिड़ी महाशय ने कहा है , " जो भी तुमको स्व से दूर करता हो वो पाप है और जो तुमको स्व की तरफ लाता हो वो पुण्य है " । अतः निम्न प्रवृत्तियाँ ही पाप हैं । जिसे गीता में श्रीभगवान ने कहा है जघन्य गुण वृत्ति स्थित तामस व्यक्ति नीचे जाता है ।
इससे यह भी पता चलता है, सहस्रार में ध्यान करने से तमस् और रजस् कम होते हैं तथा सत्त्व की वृद्धि होती है ।
बहुत साधन परम्पराओं में सीधा सहस्रार पर ध्यान करने को मना करते हैं । अतः गुरु परम्परा अनुसार आज्ञा प्राप्त करके सीधा सहस्रारमें भी व्यक्ति ध्यान करने का अभ्यास कर सकता है । क्रियायोग में ऐसा नहीं है, सीधा सहस्रार में ध्यान करने का उपदेश भी गुरुवर्गों ने दिया है ।
दूसरी बात ,
एक श्लोक को आधुनिक वैष्णव टिप्पणी करते हैं ।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नाम हि केवलम् ।
कलौ नास्तैव नास्तैव नास्तैव गतिरन्यथा ।।
इसका साधरण अर्थ है :- "केवल एक हरि नाम ही है, कलियुग में दूसरी कोई गति नहीं "
इसका यौगिक अर्थ अलग है ।
साधना में कलियुग अर्थात् वह अवस्था जब साधक की चेतना नीचे के चक्रों में निम्न प्रवृतियों में रहती है ।
हरि है श्वास, हरिनाम है श्वास के साथ मन्त्र या इसके प्राकृतिक प्रवाह पर ध्यान (जो बिना जप की हंस की ध्वनि करती है) ।
इसीके उपर लक्ष्य रखना हरि नाम का जप है । गुरुदेव स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी भी साधना में हरि मन्त्र देते हैं , दूसरे पन्थ वाले हरि को ग्रहण नहीं करते हैं, इसलिए ह रि को बदल कर अ एवं इ करदिया ।
इसीसे केवल अवस्था की प्राप्ति होती है । व्यक्ति की चेतना कलि अर्थात् निम्न प्रवृत्तियों से उपर उठती है ।
श्रीलाहिड़ी महाशय भी बार बार कहते थे ।
"हरदम लगे रहो रे भाई,
बनत बनत बनजाई"
इसी को अन्य समय में कहते थे
""हरि से लगे रहो रे भाई,
बनत बनत बनजाई"
दम अर्थ भी श्वास होता है । जैसे कहते हैं " हस हस कर वेदम हो गया " अर्थात्, इतना हँसा की सांसें रुक सी गयी।
हर समय श्वास/ प्राण के उपर लक्ष्य होना चाहिए , या क्षमता अनुसार चेष्टा होनी चाहिए ।
श्वासक्रिया सहजता से होती है , हमारी कोई चेष्टा नहीं होती । अतः यह गीतोक्त सहजकर्म है , जिसे श्रीभगवान कहते हैं कि दोषयुक्त हो भी तो त्याग न करो । सहज अर्थात् साथ साथ जन्म लिया भी है । श्वासक्रिया हमारे जन्म के साथ ही आरम्भ होती है । इस हिसाब से भी यह सहज है ।
बाकी कुछ भी अभ्यास हो अपने गुरु परम्परा अनुसार करना चाहिये ।
६ जुलाई २०२०

दोनों आँखों के मध्य में स्वर्ग का द्वार है ..... (amended) .

 दोनों आँखों के मध्य में स्वर्ग का द्वार है ..... (amended)

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आज्ञा चक्र का वेधन ही स्वर्ग में प्रवेश है| मेरु दंड को सीधा रख कर अपनी चेतना को सदैव भ्रूमध्य में स्थिर रखने का प्रयास करो और भ्रूमध्य से विपरीत दिशा में मेरुशीर्ष से थोड़ा ऊपर खोपड़ी के पीछे की ओर के भाग में नाद को सुनते रहो और ॐ का मानसिक जप करते रहो| दोनों कानों को बंद कर लो तो और भी अच्छा है| बैठ कर दोनों कोहनियों को एक लकड़ी की सही माप की T का सहारा दे दो|
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यह ओंकार की ध्वनी ही प्रकाश रूप में भ्रूमध्य से थोड़ी ऊपर दिखाई देगी जिसका समस्त सृष्टि में विस्तार कर दो और यह भाव रखो की परमात्मा की यह सर्वव्यापकता रूपी प्रकाश हम स्वयं ही हैं, हम यह देह नहीं हैं|
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सांस को स्वाभाविक रूप से चलने दो| जब सांस भीतर जाए तो मानसिक रूप से हंsss और बाहर जाए तो सोsss का सूक्ष्म मानसिक जाप करते रहो| यह भाव निरंतर रखो की हम परमात्मा के एक उपकरण ही नहीं, दिव्य पुत्र हैं, हम और हमारे परम पिता एक ही हैं|
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ह्रदय को एक अहैतुकी परम प्रेम से भर दो| इस प्रेम को सबके हृदयों में जागृत करने की प्रार्थना करो| यह भाव रखो की परमात्मा के सभी गुण हम में हैं और परमात्मा की सर्वव्यापकता ही हमारा वास्तविक शरीर है|
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जितना हो सके उतना भगवान का ध्यान करो| यह सर्वश्रेष्ठ सेवा है है जो हम कर सकते हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१३
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पुनश्चः :--
आज्ञा चक्र ही स्वर्ग का द्वार है| आज्ञाचक्र का वेधन ही स्वर्ग में प्रवेश है| आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य का क्षेत्र ज्ञानक्षेत्र है| सारा ज्ञान वहीं है|सहस्त्रार के मध्य में श्री बिंदु है, जिससे परे का क्षेत्र परा है| सहस्त्रार में ही ज्येष्ठा, वामा और रौद्री नाम की तीन ग्रंथियां हैं जिनसे सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण निःसृत होते हैं|
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अपने सब गुण-अवगुण, सब अच्छाइयाँ-बुराइयाँ और अपनी सब खूबियाँ-कमियाँ सदगुरु के चरण कमलों में अर्पित कर दो|
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सोऽहं और हंस दोनों एक ही हैं| कुछ समय पश्चात हंस ही सोहं बन जाता है| ॐ ॐ ॐ !!

आधुनिक विज्ञान में यहूदियों का योगदान ....,

 आधुनिक विज्ञान में यहूदियों का योगदान ....,

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यह फेसबुक जिसके माध्यम से हम विचार-विमर्श कर रहे हैं, एक यहूदी की ही देन है|
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आज प्रातः वर्त्तमान समय के प्रख्यात वैज्ञानिकों की और उनकी उपलब्धियों की एक सूचि देख रहा था तो उनमें से आधे से अधिक तो यहूदी ही निकले|
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सन १९७१ के बांग्लादेश की मुक्ति के लिए पाकिस्तान से हुए युद्ध के भारतीय फील्ड कमांडर यानी युद्धभूमि में रहते हुए युद्ध के वास्तविक संचालक एक यहूदी सेनाधिकारी मेजर जनरल जैकब थे जो तत्पश्चात लेफ्टिनेंट जनरल होकर सेवानिवृत हुए|
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भारत में यहूदी एक धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय है जिसको अल्पसंख्यक आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है| अल्पसंख्यक आयोग में एक भी यहूदी नहीं है| मेरी जहां तक जानकारी है कोई पारसी भी नहीं है| जब कि यहूदी और पारसी ही वास्तविक धार्मिक अल्पसंख्यक हैं|
६ जुलाई २०१७

हमारा उद्देश्य है -- ईश्वर यानि परमात्मा को समर्पित होना

 "ईश्वर यानि परमात्मा की प्राप्ति" एक गलत वाक्य है, और ईश्वर को प्राप्त करने की बात ही गलत है, क्योंकि ईश्वर तो हमें सदा से ही प्राप्त है। हम कोई मंगते/भिखारी नहीं, ईश्वर के अमृतपुत्र हैं। जहां भी कोई मांग होती है, वह व्यापार ही होता है। परमात्मा से कुछ मांगना, उनके साथ व्यापार करना है। हमारा उद्देश्य है -- ईश्वर यानि परमात्मा को समर्पित होना, न कि उन के साथ व्यापार करना।

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हम परमात्मा को दे ही क्या सकते हैं? --- परमात्मा को देने के लिए हमारे पास इतना अधिक सामान है कि उसे देने के लिए अनेक जन्म चाहियें। सबसे बड़ा तो हमारा मन है, फिर बुद्धि, फिर चित्त, और फिर अहंकार। परमात्मा को स्वयं का समर्पण ही हमारी आध्यात्मिक साधना का एकमात्र उद्देश्य है। परमात्मा को अपने राग-द्वेष का समर्पण करके ही तो हम वीतराग महात्मा हो सकते हैं, जो हमारी आध्यात्मिक साधना का प्रथम उद्देश्य है। परमात्मा में अपनी प्रज्ञा को स्थित कर के ही हम स्थितप्रज्ञ हो सकते हैं। परमात्मा में अपने अहम् का समर्पण कर के ही हम ब्रह्मविद हो सकते हैं। अतः परमात्मा से कुछ पाने की न सोचें। यह सबसे बड़ा भटकाव है।
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भगवान ने जो कुछ भी दिया है वह हमें उन्हें बापस तो लौटाना ही होगा, अन्यथा प्रकृति बापस हमसे सब कुछ छीन ही लेगी| प्रकृति हमसे छीने उस से पूर्व ही बापस लौटा दें तो अधिक अच्छा है| स्वार्थपूर्ण अधिकार का भाव एक साधक को त्याग देना चाहिए| सब कुछ परमात्मा का है, हमारा कुछ भी नहीं, और सर्वस्व भी परमात्मा ही है|
ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जुलाई २०२५

"महात्मा" की पहिचान क्या है? हम किसे "महात्मा" कह सकते हैं?

 (प्रश्न) : "महात्मा" की पहिचान क्या है? हम किसे "महात्मा" कह सकते हैं?

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(उत्तर) : वैसे तो जो महत् तत्व से जुड़ा है, वह महात्मा है। लेकिन इसकी क्या लौकिक पहिचान है? महात्माओं के सत्संग में सुना है, और मेरा निजी अनुभव भी है कि एक वीतराग व्यक्ति ही महात्मा हो सकता है। वीतराग का अर्थ है -- राग, द्वेष और अहंकार से मुक्त। वीतराग महात्मा ही स्थितप्रज्ञ और ब्राह्मी-चेतना में स्थित हो सकता है।
योगदर्शन का एक सूत्र है -- "वीतरागविषयं वा चित्तम्" (१:३७) पतंजलि योगसूत्र॥
रामचरितमानस में "वीतराग" शब्द का उपयोग उन विरक्त संतों व भक्तों के लिए किया गया है जो सांसारिक इच्छाओं और आसक्तियों से दूर हैं। जो वीतराग नहीं है वह कभी महात्मा नहीं हो सकता।
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भारत में एक दिवंगत पूर्व राजनेता को महात्मा कहा जाता है, जो महात्मा कहलाने की अंशमात्र भी पात्रता नहीं रखते। उन्हें महात्मा कहना -- "महात्मा" शब्द का अपमान है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
५ जुलाई २०२५

दोनों आँखों के मध्य में स्वर्ग का द्वार है, आज्ञाचक्र का भेदन ही स्वर्ग में प्रवेश है --

 दोनों आँखों के मध्य में स्वर्ग का द्वार है, आज्ञाचक्र का भेदन ही स्वर्ग में प्रवेश है --

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मेरु दंड को सीधा रख कर अपनी चेतना को सदैव भ्रूमध्य में स्थिर रखने का प्रयास करो और भ्रूमध्य से विपरीत दिशा में मेरुशीर्ष से थोड़ा ऊपर खोपड़ी के पीछे की ओर के भाग में नाद को सुनते रहो और ॐ का मानसिक जप करते रहो| दोनों कानों को बंद कर लो तो और भी अच्छा है| बैठ कर दोनों कोहनियों को एक लकड़ी की सही माप की T का सहारा दे दो|
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यह ओंकार की ध्वनी ही प्रकाश रूप में भ्रूमध्य से थोड़ी ऊपर दिखाई देगी जिसका समस्त सृष्टि में विस्तार कर दो और यह भाव रखो की परमात्मा की यह सर्वव्यापकता रूपी प्रकाश हम स्वयं ही हैं, हम यह देह नहीं हैं|
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सांस को स्वाभाविक रूप से चलने दो| जब सांस भीतर जाए तो मानसिक रूप से हंSSS और बाहर जाए तो सःSSS का सूक्ष्म मानसिक जाप करते रहो| यह भाव निरंतर रखो की हम परमात्मा के एक उपकरण ही नहीं, दिव्य पुत्र हैं, हम और हमारे परम पिता एक ही हैं|
ह्रदय को एक अहैतुकी परम प्रेम से भर दो| इस प्रेम को सबके हृदयों में जागृत करने की प्रार्थना करो| यह भाव रखो की परमात्मा के सभी गुण हम में हैं और परमात्मा की सर्वव्यापकता ही हमारा वास्तविक शरीर है|
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जितना हो सके उतना भगवान का ध्यान करो| यह सर्वश्रेष्ठ सेवा है है जो हम समष्टि की कर सकते हैं|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१३

कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् --

 "वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥"

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गुरु पूर्णिमा पर (जो इस वर्ष सन २०२५ ई. में १० जुलाई को पड़ रही है) गुरु-रूप में मैं जगद्गुरू भगवान श्रीकृष्ण को नमन करता हूँ। उनका ध्यान स्वभाविक रूप से हर समय ऊर्ध्वस्थ, कूटस्थ सूर्यमण्डल में "पुरुषोत्तम" के रूप में होता रहता है। जो "पुरुषोत्तम" हैं वे ही "परमशिव" हैं। उन में कोई भेद नहीं है, केवल अभिव्यक्तियाँ पृथक पृथक हैं। गुरु रूप में वे दक्षिणामूर्ति शिव भी हैं।
अपना सम्पूर्ण अस्तित्व और पृथकता का बोध उन में समर्पित कर, मैं उनके साथ एक हूँ। उनमें और मुझमें कोई भेद नहीं है। सभी जन्मों में मिले सभी गुरु भी उन्हीं के रूप थे, जो मेरे साथ एक हैं। शिवोहं शिवोहं॥ अहं ब्रह्मास्मि॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जुलाई २०२५

Friday, 4 July 2025

ईश्वर की प्राप्ति के लिए --

 ईश्वर की प्राप्ति के लिए --

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(१) एक श्रौत्रीय (जिसे श्रुतियों यानि वेदों का ज्ञान है), ब्रह्मनिष्ठ आचार्य से मार्गदर्शन लेना परम आवश्यक है। यह श्रुति भगवती का आदेश है।
(२) गीता में भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति, अनन्य योग, वीतरागता, स्थितप्रज्ञता, और पूर्ण समर्पण भी आवश्यक है।
(३) जब तक कोई मार्गदर्शक आचार्य न मिलें तब तक भगवान श्रीकृष्ण से ही मार्गदर्शन लें। वे सभी गुरुओं के गुरु यानि जगद्गुरू हैं -- "कृष्णम् वंदे जगद्गुरुम्॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जुलाई २०२४

राष्ट्रहित सर्वोपरी ---

 राष्ट्रहित सर्वोपरी॥

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धर्म और ईश्वर की सर्वोच्च व सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारतवर्ष में हुई है, इसलिए हमें भारतवर्ष से प्रेम है। धर्म सनातन व अमर है। धर्म ही सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन कर रहा है। धर्म ही भारत का प्राण है।
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हमारी आध्यात्मिक साधना धर्म और राष्ट्र के लिए ही है, न कि स्वयं (व्यक्ति-विशेष) के लिए। हम यहाँ किसी के या स्वयं के मनोरंजन या अहंकार-तृप्ति के लिए नहीं हैं।
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साकार रूप में वह सर्वव्यापी अनंतातीत परमशिव भाव में स्थित होकर -- कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान है। निराकार रूप में ब्रह्मभाव है। यहाँ निराकार का अर्थ है -- सारे रूप जिसके हैं, वह निराकार है। भगवती स्वयं प्राण-तत्व कुंडलिनी के रूप में जागृत होकर अपनी साधना स्वयं कर रही है। दूसरे शब्दों में भगवान हमें एक निमित्त माध्यम बनाकर अपनी साधना स्वयं कर रहे हैं। हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। एकमात्र अस्तित्व सिर्फ परमात्मा का है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जुलाई २०२४

आज मेरा सात दिन का एकान्तवास पूर्ण हुआ ---

 आज मेरा सात दिन का एकान्तवास पूर्ण हुआ। बहुत अच्छा अनुभव रहा। भगवान ने मेरे एक बहुत ही गोपनीय और गहन प्रश्न का उत्तर भी ध्यान में दे दिया। आज 5 जुलाई को एक मित्र के परिवार के साथ हूं और रात्री में ट्रेन से घर के लिए रवाना हो जाऊँगा।

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सारा संसार ब्रह्ममय है। ब्रह्म यानि जिस का निरंतर विस्तार हो रहा है और जिस से परे कुछ भी अन्य नहीं है। वह ब्रह्म ही परमशिव है, जो परम कल्याण कारक है। वही विष्णु है जो यह समस्त विश्व बन कर इसका पालन-पोषण कर रहा है। जगन्माता के रूप में वही प्राणों का संचार कर इस सृष्टि को चैतन्य बनाये हुये हैं। जगन्माता का उग्रतम रूप भगवती महाकाली है, और सौम्यतम रूप है राजराजेश्वरी ललिता महात्रिपुरसुन्दरी भगवती श्रीविद्या।
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इन्हीं में से किन्हीं या इनके किसी अवतार की उपासना की जाती है। ब्रह्म को ही हम परमात्मा, भगवान, सच्चिदानंद आदि नामों से पुकारते हैं। हमारा उद्गम उन्हीं से हुआ है, और जब तक हम उन में बापस नहीं लौटते, तब तक कर्मफलों को भोगने के लिए जन्म-मरण का चक्र चलता ही रहेगा। यदि हृदय में भक्ति और अभीप्सा है तो भगवान आगे का मार्ग अवश्य दिखाते हैं। सभी का कल्याण हो, सभी सुखी हों।। ओम् तत्सत् ।।
कृपा शंकर
5 जुलाई 2023

समय अब अधिक नहीं बचा है ---

 समय अब अधिक नहीं बचा है ---

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अब सोच-विचार करने, या इधर-उधर कहीं भी जाने का समय नहीं है। उपदेशों का कोई अंत नहीं है। व्यभिचारिक वासनाएँ लगातार पीछे पड़ी हैं। दृढ़ इच्छा और संकल्प-शक्ति का भी अभाव है। ऐसे विकट आपत्काल मे एकमात्र आश्रय सच्चिदानंद भगवान स्वयं हैं।
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अब किसी उपदेश, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, कर्म-अकर्म आदि का कोई महत्व नहीं रहा है। शांभवी-मुद्रा में भगवान वासुदेव स्वयं यहाँ बैठे हैं, और कूटस्थ में अपने ही परमशिव रूप का ध्यान कर रहे हैं। उनके सिवाय पूरी सृष्टि में, व सृष्टि से परे कोई अन्य नहीं है। वे चित्त में इतने गहरे समा गए हैं कि मेरा अब उनसे पृथक कोई अस्तित्व नहीं रहा है।
. निरंतर ब्रह्मभाव में रहें। मैं यह "शरीर महाराज" नहीं, साक्षात परमशिव परमब्रह्म सच्चिदानंद हूँ। इन हाथ पैर आँख कान नाक आदि इंद्रियों की सभी क्रियाएँ स्वयं भगवान परमशिव कर रहे हैं। वे ही इन आँखों से देख रहे हैं, कानों से सुन रहे हैं, पैरों से चल रहे हैं, और बुद्धि से सोच भी रहे हैं। वे ही इस व्यक्ति के रूप में स्वयं को व्यक्त कर रहे हैं। यह मन उन्हीं का है। इस के स्वामी साक्षात वे ही हैं। सभी इंद्रियाँ और अन्तःकरण -- वे ही हैं। मेरा एकमात्र संबंध परमब्रह्म परमात्मा से है, जो मैं स्वयं हूँ। जहाँ तक मेरी दृष्टि और कल्पना जाती है, वह सब मैं ही हूँ, यह शरीर महाराज नहीं। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जुलाई २०२२

(प्रश्न) : संसार का सार क्या है? // (उत्तर) : यह प्रश्न ही संसार का सार है।

 (प्रश्न) : संसार का सार क्या है? // (उत्तर) : यह प्रश्न ही संसार का सार है।

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परमात्मा से बड़ा कोई ईर्ष्यालु प्रेमी नहीं है, और इस अन्तःकरण (मन बुद्धि चित्त अहंकार) से बड़ा कोई धोखेबाज मित्र नहीं है।
जब उन से प्रेम हो गया है, और उन से दिल लगा ही दिया है, तब प्रियतम को पाने के लिए जान की बाजी लगा देनी ही होगी। उनके बिना जीवन में कोई सार नहीं है। यह भौतिक, सूक्ष्म व कारण देह, अपनी इंद्रियों व उनकी तन्मात्राओं सहित चाहे नष्ट हो जाएँ; इन का प्रियतम के बिना कोई महत्व नहीं है। प्रियतम की प्राप्ति में ही सार है।
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प्रियतम मेरे सामने शांभवी मुद्रा में ध्यानस्थ हैं। वे सर्वत्र व्याप्त हैं, और वे ही सर्वस्व हैं। मैं अपनी चेतना में उनसे एकाकार नहीं हो पा रहा हूँ। बड़े ईर्ष्यालु प्रेमी मिले हैं। वे कहते हैं कि पहिले अपने मन को सिर्फ उन में ही लगाकर, अन्य कुछ भी चिंतन न करूँ, तभी मिलूंगा। अपने से अन्य, यहाँ तक कि अपनी रचना के चिंतन को भी वे व्यभिचार कहते हैं -- "मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी॥"
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वे कहते हैं --
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
"यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
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अर्थात् - "शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को (मुझ) आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥"
"यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे॥"
" जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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वे तो "वीतराग" और "स्थितप्रज्ञ" होने को भी कहते हैं। वीतरागता का अर्थ होता है -- राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति। स्थितप्रज्ञता का अर्थ होता है -- अपनी प्रज्ञा को केवल परमात्मा में ही स्थित करना।
वे चेतावनी भी देते हैं --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् -- मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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सब स्वीकार है। भयमुक्त होना उनकी पहली शर्त है। जब सर्वस्व वे ही हैं तो भय कैसा? ---
"न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता।
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता॥"
"हुआ जब ग़म से यूँ बे-हिस तो ग़म क्या सर के कटने का।
न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पर धरा होता॥"
"हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है।
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
४ जुलाई २०२४

धर्म का पालन हमारा कर्मयोग है, धर्म का उत्थान परमात्मा का कार्य है ---

 धर्म का पालन हमारा कर्मयोग है, धर्म का उत्थान परमात्मा का कार्य है ---

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सनातन परंपरा में चार पुरुषार्थ माने गए हैं, जिनमें धर्म प्रमुख है (अन्य तीन - अर्थ, काम और मोक्ष हैं, जो धर्म पर ही निर्भर हैं)। धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है। कणाद ऋषि ने वैशेषिक सूत्रों में धर्म को इस प्रकार परिभाषित किया है -- "यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धिः स धर्म", यानि जिस से अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि हो, वह धर्म है। (अभ्युदय का अर्थ है -- सर्वतोमुखी निरंतर उन्नति और विकास) (निःश्रेयस का अर्थ है - सब तरह का कल्याण, मोक्ष, मंगल, मुक्ति)
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मनु-स्मृति में मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं, जिनको धारण करना "धर्म" है --
"धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्॥"
(धृति (धैर्य), क्षमा, दम (इंद्रियों पर नियंत्रण), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरंग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन), और अक्रोध (क्रोध न करना), -- धर्म के ये दस लक्षण हैं। इनको धारण करना "धर्म" है।
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"अधर्म" क्या है? --
धर्म के जो लक्षण दिये हैं, उनका विलोम अधर्म है।
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जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये - यह धर्म की कसौटी है। एक सुभाषित है --
"श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ॥"
अर्थात् - धर्म का सर्वस्व क्या है, यह सुनो और सुनकर उस पर चलो। अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये।
रामचरितमानस के अनुसार --
"परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥"
इसी बात को वेदव्यास जी ने इस तरह कहा है --
"अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्। परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्॥"
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हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, धर्म मनसा, वाचा, कर्मणा होता है। यह केवल क्रिया से सम्बन्धित नहीं है।
महाभारत के वनपर्व (३१३/१२८) में कहा है --
"धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्॥"
इसका भावार्थ है कि धर्म उसी की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करता है।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥४-७॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥४-८॥"
अर्थात् - "हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ॥
साधु पुरुषों के रक्षण, दुष्कृत्य करने वालों के नाश, तथा धर्म संस्थापना के लिये, मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ॥"
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सत्य-सनातन-धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण सुनिश्चित है। पिछले कुछ कालखंड में सनातन धर्मावलम्बियों के पतन का एकमात्र कारण काल के प्रभाव से तमोगुण की प्रधानता थी। इसलिए सबसे बड़ी आवश्यकता तो तमोगुण से समाज की मुक्ति है। धर्मशिक्षा के अभाव में तमोगुण बहुत अधिक बढ़ गया है। यह तमोगुण ही हमारे के पतन का एकमात्र कारण था और है भी।
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प्रकट रूप में सनातन धर्म के चार स्तम्भ हैं -- आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों का सिद्धान्त, पुनर्जन्म, और ईश्वर के अवतारों में आस्था। जो भी इनको मानता है, वह स्वतः ही हिन्दू है।
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हिन्दू बालकों को आठ वर्ष की आयु से ही हठयोग व ध्यान आदि की शिक्षा देनी होगी। उन्हें हिन्दू संस्कारों, व धर्म के लक्षणों का ज्ञान देना होगा। धर्मग्रंथों का ज्ञान कहानियों के माध्यम से देना होगा।
हम हर दृष्टिकोण से शक्तिशाली और सत्यनिष्ठ बनें। सत्यनिष्ठा ही धर्मनिष्ठा है। हम शक्तिशाली होंगे तो समाज भी शक्तिशाली होगा। समाज शक्तिशाली होगा तो राष्ट्र भी शक्तिशाली होगा। निरंतर ईश्वर की चेतना में रहें। सबका कल्याण होगा।
कोई चाहे या न चाहे, यह राष्ट्र धर्मनिष्ठ होगा। अधर्म का नाश होगा। असत्य का अंधकार स्थायी नहीं है। धर्म की विजय होगी, और अधर्म का नाश होगा। हम अपने धर्म का पालन करें।
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हम शाश्वत आत्मा हैं, आत्मा का धर्म है -- परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा, और परमात्मा से परमप्रेम। परमात्मा से प्रेम करेंगे तो हमारी मधुमती ऋतंभरा-प्रज्ञा जागृत होगी।
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
४ जुलाई २०२२

गुरु पूर्णिमा की आप सब को हार्दिक शुभकामनायें .....

 गुरु पूर्णिमा की आप सब को हार्दिक शुभकामनायें .....

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"अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्| तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः||"
"ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्|
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम्, भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि||"
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मैं अपने गुरु महाराज को अपना सम्पूर्ण अस्तित्व समर्पित करता हूँ| मेरे पास अपना कहने को कुछ भी नहीं है| सब कुछ उन्हीं का है| तत्व रूप में वे मेरे कूटस्थ में नित्य निरंतर विराजमान हैं| वे कोई हाड़-मांस की देह नहीं, परमप्रेममय, नित्य नवीन आनंद, व सर्वव्यापी ज्योतिर्मय चैतन्य हैं| उनके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है|
"गुशब्दस्त्वन्धकार: स्यात् रूशब्दस्तन्निरोधक:| अन्धकारनिरोधित्वाद् गुरूरित्यभिधीयते||"
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प्रतीक रूप में गुरु-चरणों की या गुरु-पादुका की पूजा होती है| मैं गुरु-चरणों की पूजा .... सहस्त्रार में ध्यान द्वारा करता हूँ| ब्रह्मरंध्र से परे की अनंतता उनका विराट रूप है| उस अनंतता से भी परे का ज्योतिषांज्योतिर्मय आलोक जिसे मैं "परमशिव" कहता हूँ, वे स्वयं हैं| वे ही वासुदेव हैं, वे ही नारायण हैं, और वे ही मेरे आराध्य इष्ट देव हैं|
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"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
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"वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूरमर्दनं| देवकी परमानंदं कृष्णं वंदे जगद्गुरुं||"
"वंशी विभूषित करान्नवनीर दाभात् , पीताम्बरा दरुण बिंब फला धरोष्ठात् |
पूर्णेन्दु सुन्दर मुखादरविंद नेत्रात् , कृष्णात परम किमपि तत्वमहंनजाने ||"
"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने| प्रणत: क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:||"
"नमो ब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मण हिताय च| जगत् हिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः||"
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्| यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्||"
"हरे मुरारे मधुकैटभारे, गोविन्द गोपाल मुकुंद माधव |
यज्ञेश नारायण कृष्ण विष्णु, निराश्रयं मां जगदीश रक्षः ||"
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"ऊँ सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्विना वधीतमस्तु, मा विद्विषावहै ||" ऊँ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ||
ॐ तत्सत!! ॐ गुरु!! जय गुरु!! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ जुलाई २०२०
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पुनश्च :--- इस साल पांच महीने का चातुर्मास है| देवशयनी एकादशी से देवप्रबोधिनी एकादशी के बीच के समय को चातुर्मास कहते हैं| इस बार आश्विन माह का अधिकमास है|

हिन्दू समाज में ये दो बहुत बड़ी विकृतियाँ है जिन्हें दूर किए बिना समाज में कोई उन्नति नहीं हो सकती ...

 हिन्दू समाज में ये दो बहुत बड़ी विकृतियाँ है जिन्हें दूर किए बिना समाज में कोई उन्नति नहीं हो सकती ...

(१) धर्मशिक्षा का अभाव.
(२) विवाह में बहुत अधिक अनावश्यक खर्च.
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(१) धर्मशिक्षा के लिए सरकार पर दबाव डालकर संविधान के उन सब हिन्दू विरोधी प्रावधानों को हटवाना पड़ेगा जो हिंदुओं को अपने धर्म की शिक्षा प्रदान करने की अनुमति नहीं देते| समान नागरिक संहिता को लागू करवाना होगा, और हिन्दू मंदिरों की सरकारी लूट बंद करवानी होगी| मंदिरों का धन धर्म-संरक्षण के लिए है, न कि अधर्म के लिए|
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(२) विवाह सूर्य की रोशनी में दिवा-लग्न में ही अनिवार्य किए जाएँ और किसी भी परिस्थिति में दूल्हे सहित १० से अधिक बराती ले जाना कानूनी अपराध हो| कन्या पक्ष पर वर पक्ष के अधिकाधिक १० लोगों को सिर्फ एक ही बार भोजन कराने की ज़िम्मेदारी हो| किसी भी तरह का लेनदेन न हो और सारे विवाह रजिस्टर्ड भी हों| जब लेन-देन नहीं होगा तब भविष्य में दहेज के और महिला अत्याचार के झूठे मुकदमें भी नहीं होंगे|
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उपरोक्त विषयों पर कोई समझौता नहीं होना चाहिए, तभी हिन्दू समाज प्रगतिशील होगा| वर्तमान में बेटियाँ किसी को नहीं चाहियें, पर कमाऊ बहू सब को चाहिए| यह हिन्दू समाज का सब से बड़ा ढोंग है| क्या बेटियों को जन्म देना अपराध है? हिन्दू समाज में बेटियों के माँ-बाप क्या लूट-खसोट के लिए ही हैं? उनको हर जगह नीचा क्यों दिखाया जाता है? हर अवसर पर किसी न किसी सामाजिक रिवाज के नाम पर उन को क्यों लूटा जाता है?
४ जुलाई २०२०
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पुनश्च: ----
आजकल बड़े शहरों की लड़कियों को सिर्फ कमाऊ पति ही चाहियें| वे दस-बारह लाख वार्षिक से कम कमाने वाले लड़के से संबंध नहीं करना चाहतीं| उन्हें न तो लड़के के स्वभाव और चरित्र से मतलब है और न खानदान से| उन्हें सिर्फ पैसा ही चाहिए| यह भी एक सामाजिक विकृति है|

Thursday, 3 July 2025

पलटू सोइ सुहागनी, हीरा झलके माथ ......

 पलटू सोइ सुहागनी, हीरा झलके माथ ......

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संत पलटूदास जी कह रहे हैं कि सुहागन वो ही है जिसके माथे पर हीरा झलक रहा है| अब यह प्रश्न उठता है कि सुहागन कौन है और माथे का हीरा क्या है ? वह हीरा है ब्रह्मज्योति का जो हमारे माथे पर कूटस्थ में देदीप्यमान है| सुहागन है वह जीवात्मा जो परमात्मा के प्रति पूर्णतः समर्पित है|
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"मन मिहीन कर लीजिए, जब पिउ लागै हाथ .....
जब पिउ लागै हाथ, नीच ह्वै सब से रहना |
पच्छापच्छी त्याग उंच बानी नहिं कहना ||
मान-बड़ाई खोय खाक में जीते मिलना |
गारी कोउ दै जाय छिमा करि चुपके रहना ||
सबकी करै तारीफ, आपको छोटा जान |
पहिले हाथ उठाय सीस पर सबकी आनै ||
पलटू सोइ सुहागनी, हीरा झलकै माथ |
मन मिहीन कर लीजिए, जब पिउ लागै हाथ ||"
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परमात्मा को पाना है, तो उसी मात्रा में परमात्मा मिलेगा जिस अनुपात में हमारा मन सूक्ष्म होगा| सूक्ष्म यानी अहंकार के मिट जाने की दिशा में यात्रा| जिस दिन मन पूरा शून्य हो जाता है, उसी दिन हम परमात्मा हैं| फिर प्रेमी में और प्यारे में फर्क नहीं रह जाता, भक्त और भगवान में फर्क नहीं रह जाता| फर्क एक शांत झीने से धुएँ के पर्दे का है, मगर हम अपने अंतर में कोलाहल रूपी बड़ा मोटा लोहे का पर्दा डाले हुए हैं, और उसमें बंदी बनकर चिल्लाते हैं कि भगवान तुम कहाँ हो| उस कोलाहल को शांत करना पड़ेगा|
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जब गंगाजल मिल सकता हो तो हम क्यों किसी गंदी नाली का जल पीएँ ? नृत्य ही देखना हो अपने अंतर में तो मीरा का और भगवन नटराज का नृत्य ही देखें| गीत ही सुनना हो तो किसी भक्त कवि का गीत सुनें| जब तक हम अपने अहंकार अर्थात अपनी 'मैं' को नहीं त्यागते तब तक हमें परमात्मा कि प्राप्ति नहीं हो सकती|
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हमें सुहागन भी बनना है और माथे पर हीरा भी धारण करना है| हमारा सुहाग परमात्मा है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
०३ जुलाई २०१६