Friday, 4 July 2025

(प्रश्न) : संसार का सार क्या है? // (उत्तर) : यह प्रश्न ही संसार का सार है।

 (प्रश्न) : संसार का सार क्या है? // (उत्तर) : यह प्रश्न ही संसार का सार है।

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परमात्मा से बड़ा कोई ईर्ष्यालु प्रेमी नहीं है, और इस अन्तःकरण (मन बुद्धि चित्त अहंकार) से बड़ा कोई धोखेबाज मित्र नहीं है।
जब उन से प्रेम हो गया है, और उन से दिल लगा ही दिया है, तब प्रियतम को पाने के लिए जान की बाजी लगा देनी ही होगी। उनके बिना जीवन में कोई सार नहीं है। यह भौतिक, सूक्ष्म व कारण देह, अपनी इंद्रियों व उनकी तन्मात्राओं सहित चाहे नष्ट हो जाएँ; इन का प्रियतम के बिना कोई महत्व नहीं है। प्रियतम की प्राप्ति में ही सार है।
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प्रियतम मेरे सामने शांभवी मुद्रा में ध्यानस्थ हैं। वे सर्वत्र व्याप्त हैं, और वे ही सर्वस्व हैं। मैं अपनी चेतना में उनसे एकाकार नहीं हो पा रहा हूँ। बड़े ईर्ष्यालु प्रेमी मिले हैं। वे कहते हैं कि पहिले अपने मन को सिर्फ उन में ही लगाकर, अन्य कुछ भी चिंतन न करूँ, तभी मिलूंगा। अपने से अन्य, यहाँ तक कि अपनी रचना के चिंतन को भी वे व्यभिचार कहते हैं -- "मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी॥"
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वे कहते हैं --
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
"यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
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अर्थात् - "शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को (मुझ) आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥"
"यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे॥"
" जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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वे तो "वीतराग" और "स्थितप्रज्ञ" होने को भी कहते हैं। वीतरागता का अर्थ होता है -- राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति। स्थितप्रज्ञता का अर्थ होता है -- अपनी प्रज्ञा को केवल परमात्मा में ही स्थित करना।
वे चेतावनी भी देते हैं --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् -- मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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सब स्वीकार है। भयमुक्त होना उनकी पहली शर्त है। जब सर्वस्व वे ही हैं तो भय कैसा? ---
"न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता।
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता॥"
"हुआ जब ग़म से यूँ बे-हिस तो ग़म क्या सर के कटने का।
न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पर धरा होता॥"
"हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है।
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
४ जुलाई २०२४

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