Wednesday, 30 April 2025

यह जीवन अब मुक्तावस्था में निरंतर ब्राह्मी-स्थिति में ही रहे (शिवो भूत्वा शिवं यजेत्) ---

 

यह जीवन अब मुक्तावस्था में निरंतर ब्राह्मी-स्थिति में ही रहे (शिवो भूत्वा शिवं यजेत्) --- . मैं नित्यमुक्त, बड़ी सत्यनिष्ठा से, अपने हृदय की बात कह रहा हूँ। जिन की समझ में आये उन का मंगल हो, और जिन की समझ में न आये उन का भी मंगल हो। बाल्यकाल से ही मैं एक गहन जिज्ञासु रहा हूँ जो अति उत्सुकता से अपने आसपास के घटनाक्रम का बहुत गहराई से अवलोकन करता है। जीवन में ऊँच-नीच, न्याय-अन्याय, और अच्छा-बुरा सब कुछ बहुत अधिक देखा है, और उससे बहुत कुछ सीखा भी है। मेरे भी अपने आदर्श हैं, और अपनी स्वयं की विचारधारा भी है। लेकिन मैं अपने चारों ओर छाई हुई असत्य और अंधकार की शक्तियों से बहुत ही अधिक पीड़ित रहा हूँ। उन्होंने मुझे बहुत अधिक दुःख दिया है। इनके पीछे क्या रहस्य है? मुझे नहीं पता। पिछले जन्मों के कर्मफल रहे होंगे। जीवन के इस संध्याकाल में अब कोई कामना या आकांक्षा नहीं रही है। अवशिष्ट जीवन में जो भी सर्वश्रेष्ठ हो सकता है, उसी की उपासना में यह जीवन व्यतीत हो जाये, ताकि जो भी हो वह मंगलमय हो।

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एक अभीप्सा है -- अव्यक्त को व्यक्त करने की। किसी भी तरह का कोई संशय या शंका नहीं है। प्रकृति की प्रत्येक शक्ति मेरा साथ देगी ऐसी मेरी दृढ़ आस्था, श्रद्धा और विश्वास है। परमात्मा मेरे साथ हैं जिनके समक्ष कोई असत्य का अंधकार नहीं टिक सकता। मैं सदा कूटस्थ चैतन्य में, यानि ब्राह्मी स्थिति में रहूँ, और मेरी चेतना परम प्रेममय होकर समष्टि के साथ एक होकर रहे।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् - हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
यह अवस्था ब्राह्मी यानी ब्रह्म में होनेवाली स्थिति है, जहाँ सर्व कर्मों का संन्यास कर के केवल ब्रह्मरूप से स्थित हो जाना है। परमात्मा सब गुरुओं के गुरु हैं। उनसे प्रेम करो, सारे रहस्य अनावृत हो जाएँगे। हम भिक्षुक नहीं, परमात्मा के अमृत पुत्र हैं। मुझे सब में परमात्मा के ही दर्शन होते हैं। अतः सभी को मैं नमन करता हूँ।
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भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं --
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं॥८:१०॥"
अर्थात - भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|
आगे भगवान कहते हैं --
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|
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निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना -- यह एक दिन का काम नहीं है। इसके लिए हमें आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा। उपरोक्त तथ्य के समर्थन में किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, भगवान का वचन तो है ही, और सारे उपनिषद्, शैवागम और तंत्रागम इसी के समर्थन में भरे पड़े हैं।
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ध्यान का अभ्यास करते करते चेतना सहस्त्रार पर या ब्रह्मरंध्र के मार्ग से इस शरीर से बाहर भी चली जाए तो चिंता न करें। जब तक प्रारब्ध में जीवन लिखा है, मृत्यु नहीं आने वाली। सहस्त्रार में तो गुरु महाराज के चरण कमल हैं। कूटस्थ केंद्र भी वहीं चला जाता है। वहाँ स्थिति मिल गयी तो गुरु चरणों में आश्रय मिल गया।
चेतना ब्रह्मरंध्र से बाहर निकल कर अनंत में या उस से भी परे रहने लगे तब तो और भी प्रसन्नता की बात है। वह विराटता ही तो "विराट पुरुष" है।
उस अनंतता से भी परे परमशिव की अनुभूति "पञ्चमुखी महादेव" के रूप में होती है। इस देह से बाहर दिखाई देने वाली ज्योति भी अवर्णनीय और दिव्यतम है। परमात्मा के प्रेम में मग्न रहें, फिर तो परमात्मा ही परमात्मा होंगे, न कि हम।
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खोपड़ी के पीछे का भाग मेरुशीर्ष (Medulla Oblongata) हमारी देह का सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है जहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ मष्तिष्क से मिलती हैं। इस भाग की कोई शल्यक्रिया नहीं हो सकती। हमारी सूक्ष्म देह में आज्ञाचक्र यहीं पर स्थित है। यह स्थान भ्रूमध्य के एकदम विपरीत दिशा में है। योगियों के लिए यह उनका आध्यात्मिक हृदय है। यहीं पर जीवात्मा का निवास है। इसके थोड़ा सा ऊपर ही शिखा बिंदु है, जहाँ शिखा रखते हैं। उस से ऊपर सहस्त्रार और ब्रह्मरंध्र है।
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गुरु की आज्ञा से शिवनेत्र होकर यानि बिना किसी तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में या जीभ को बिना किसी तनाव के ऊपर पीछे की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखते हुए, प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करें। गुरु की कृपा से कुछ महिनों या वर्षों की साधना के पश्चात् विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है। यह ब्रह्मज्योति और प्रणव की ध्वनि दोनों ही आज्ञाचक्र में प्रकट होती हैं, पर इस ज्योति के दर्शन भ्रूमध्य में प्रतिबिंबित होते हैं, इसलिए गुरु महाराज सदा भ्रूमध्य में ध्यान करने की आज्ञा देते हैं। ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के पश्चात् उसी की चेतना में सदा रहें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है। यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से एक है।
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दो बातें और कहना चाहता हूँ, जिन्हें बताने की भगवान से मुझे पूरी अनुमति है। आज अन्तःचेतना में स्वयं भगवान शिव ने दो बातें कहीं ---
एक तो उन्होंने कहा कि मुक्ति या मोक्ष की कामना ही मुक्ति और मोक्ष के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है। जब तक मुक्ति और मोक्ष की कामना है तब तक हम बंधन में हैं, तब न तो मुक्ति मिल सकती है और न ही मोक्ष।
दूसरी बात उन्होंने कही -- "शिवो भूत्वा शिवं यजेत्।" अर्थात स्वयं शिव बनकर शिव की उपासना करो॥
ॐ नमः शिवाय। ॐ तत्सत्। ॐ स्वस्ति। ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
३० अप्रेल २०२३

Tuesday, 29 April 2025

वास्तव में स्वयं से पृथक कोई अस्तित्व नहीं है, हमारी दृष्टि अद्वैत हो ---

 हम यह देह नहीं, सर्वव्यापी परमात्मा के साथ एक हैं। लेकिन हमारा तमोगुण हमें परमात्मा से दूर करता है। हमारे चारो ओर जो तमोगुण रूपी आसुरी तत्व भरा हुआ है, वह हमें परमात्मा की अनुभूति नहीं होने देता। तमोगुण से मुक्त होने के लिए हमें नित्य नियमित ध्यान साधना करनी ही होगी। ध्यान-साधना एक यज्ञ है जिसमें हम अपने स्वयं की यानि अपने अहं की आहुति परमात्मा को देते हैं।

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एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग नहीं दिखा सकता। बड़े बड़े उपदेश तो हम लोग निःस्पृहता के देते हैं, लेकिन हमारी दृष्टि धनाढ्य/मालदार आसामियों की खोज में ही रहती है। पैसा झटकने में बिलकुल भी देर नहीं लगाते। हम लोग कहते तो यह हैं कि साधु का वातानुकूलित भवनों से क्या काम ? पर स्वयं बिना वातानुकूलित भवनों के रह ही नहीं सकते। जहाँ झूठ-कपट हो, व कथनी-करनी में अंतर हो, उस स्थान और उस वातावरण का विष की तरह तुरंत त्याग कर देना चाहिये। पात्रता होने पर ही सदगुरु मिलते हैं।
अन्यथा --
"सद्गुरु तो मिलते नहीं, मिलते गुरु-घंटाल।
पाठ पढ़ायें त्याग का, स्वयं उड़ायें माल॥"
"गुरू लोभी चेला लालची, दोनों खेले दाव।
दोनों डूबे बावरे, चढ़ पत्थर की नाव॥"
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परमात्मा -- निकटतम से अधिक निकट, और प्रियतम से भी अधिक प्रिय हैं। उनके और हमारे मध्य में कोई भेद है ही नहीं। वे इसी समय यहीं पर हमारे अंतर में, हमारे चैतन्य में हैं। उन्हें जानने का एक ही तरीका है, और वह है -- परमप्रेम/अनुराग द्वारा पूर्ण समर्पण। अन्य कोई उपाय नहीं है।
"मिले न रघुपति बिन अनुरागा, किये जोग जप ताप विरागा "
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स्वयं से पृथक कोई अस्तित्व नहीं है। परमात्मा हमारे से पृथक नहीं हैं।
"सोइ जानइ जेहि देहु जनाई | जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ||"
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महाभारत में यक्षप्रश्नों के उत्तर में महाराज युधिष्ठिर एक स्थान पर कहते हैं --
"श्रुतिर्विभिन्ना स्मृतयो विभिन्नाः नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः सः पन्थाः॥"
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इस से अधिक अच्छा कोई उत्तर नहीं हो सकता। बाकी सब की अपनी अपनी सोच और निजी अनुभूतियाँ हैं।
ॐ तत्सत् ! ॐ स्वस्ति ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर .
२८ अप्रेल २०१९

Monday, 28 April 2025

भारत विजयी होकर एक अखंड, धर्मनिष्ठ, व आध्यात्मिक हिन्दू राष्ट्र होगा। सत्य-सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा व वैश्वीकरण होगा ---

हम व्यवहार में हिन्दू बनें, हिंदु समाज में कोई किसी भी तरह की कमी नहीं है। हम उच्च कोटि का अच्छा मौलिक साहित्य पढ़ें (विदेशी लेखकों का नहीं), नित्य नियमित व्यायाम करें, अच्छा आहार लें और तनावमुक्त जीवन जीयें। प्रातः-सायं परमात्मा का ध्यान करें, किसी भी तरह का नशा न करें, और हर दृष्टि से शक्तिशाली बनें। हिन्दू समाज अपनी हीनता के बोध से ऊपर उठें। भारत का हिन्दू समाज निश्चित रूप से अपने गौरवशाली परम वैभव को प्राप्त होगा|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२९ अप्रेल २०२१

भगवान हमें अपने साथ अनन्य बनाना चाहते हैं, अतः उन्हीं की उपासना करें ---

 भगवान हमें अपने साथ अनन्य बनाना चाहते हैं, अतः उन्हीं की उपासना करें ---

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हम भगवान में ही अपने पूरे मन और बुद्धि को लगा कर भगवान में ही निरंतर निवास करें। अनन्य भक्ति और उपासना क्या है? यह स्वयं को ही समझना होगा, कोई अन्य समझाने नहीं आएगा। कोई बात समझ में नहीं आए तो उसे समझने के लिए भगवान से ही प्रार्थना करें। दूसरों के उत्तर कभी संतुष्ट नहीं कर सकते। हर शंका का निवारण भगवान से स्वयं ही करो। भगवान के प्रति जो मेरी समझ है वह मेरी अपनी समझ है जो स्वयं भगवान ने ही मुझे समझाई है। मैँ किसी भी अन्य को नहीं समझा सकता। मेरी हरेक साँस स्वयं भगवान ले रहे हैं, और मुझे एक निमित्त मात्र यानि अपना उपकरण बनाकर सारी उपासना भी स्वयं ही कर रहे हैं। उनके सिवाय कोई अन्य नहीं है।
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उपासना क्या है? --- अचिंत्य और कूटस्थ परमात्मा को बुद्धि का विषय बनाकर, तैलधारा के तुल्य दीर्घकाल तक पूरे मन से समभाव से उस में स्थित रहने के अभ्यास को उपासना कहते हैं। यह उसी के समझ में आ सकती है जिस पर भगवान की विशेष कृपा हो। भगवान को प्रेम करने से ही उनकी कृपा प्राप्त होती है।
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अपने सारे कर्मफल और अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) परमात्मा को सौंप दें। उनके अतिरिक्त हमारे पास और है ही क्या? फिर सारे सदगुण परमात्मा की कृपा से स्वयं ही प्राप्त होंगे। भगवान को कौन प्रिय है? इसका उत्तर भगवान ने गीता में अनेक स्थानों पर दिया है। हम उनके प्रिय बनें। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ अप्रेल २०२३

अनन्य भक्ति योग व उपासना ---

 अनन्य भक्ति योग व उपासना ---

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मैं अपने सबसे अधिक प्रिय विषय पर लिख रहा हूँ। मेरा सर्वाधिक प्रिय विषय है -- "अनन्य भक्ति योग"। परमात्मा की अनन्य भक्ति को ही "अव्यभिचारिणी भक्ति" कहते हैं। हम परमात्मा के साथ अनन्य बनें, इसी की उपासना करें। अपने पूरे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) को लगा कर परमात्मा में ही निरंतर रमण और निवास करें। यह एक ऐसा विषय है जो हरिःकृपा से ही समझ में आ सकता है। परमात्मा को कौन प्रिय है और कैसे उनकी कृपा प्राप्त होती है? इसका उत्तर भगवान ने गीता में अनेक स्थानों पर दिया है।
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आचार्य शंकर के अनुसार -- "अचिंत्य और कूटस्थ परमात्मा को बुद्धि का विषय बनाकर, तैलधारा के तुल्य दीर्घकाल तक पूरे मन से समभाव से उस में स्थित रहने के अभ्यास को उपासना कहते हैं।"
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यह विषय उसी के समझ में आ सकता है जिस पर भगवान की विशेष कृपा हो। भगवान को प्रेम करने से ही उनकी कृपा प्राप्त हो सकती है। यथासंभव अधिकाधिक भक्ति (भगवान से परम प्रेम) करें।
इस से अधिक कहने को मेरे पास कुछ भी नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ अप्रेल २०२४ . पुनश्च: --- थोड़ा चिंतन कीजिए तब समझ में आयेगा कि "अनन्य" का अर्थ क्या है| गहराई में जाने के लिए वेदान्त के दृष्टिकोण से विचार कीजिए|
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
अर्थात् अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ||
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्| साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः||९:३०||"
अर्थात् अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है, तो उसको साधु ही मानना चाहिये| कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है|
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति| कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति||९:३१||"
अर्थात् हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है| तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता||

Sunday, 27 April 2025

जो साधक कोई साधना नहीं करता, सिर्फ प्रभावशाली बातें ही करता है, वह संसार को तो मूर्ख बना सकता है, लेकिन भगवान को नहीं।

जो साधक कोई साधना नहीं करता, सिर्फ प्रभावशाली बातें ही करता है, वह संसार को तो मूर्ख बना सकता है, लेकिन भगवान को नहीं। वह अपने अहंकार को ही तृप्त कर रहा है, अपनी आत्मा को नहीं। आत्मा की अभीप्सा, परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति से ही तृप्त होती है, जिस के लिए उपासना/साधना करनी पड़ती है।
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हमारा सारा शास्त्रों का ज्ञान, लिखने व बोलने की प्रभावशाली कला, -- निरर्थक और महत्वहीन है, यदि व्यवहारिक जीवन में कोई आध्यात्मिक साधना/उपासना नहीं है। जठराग्नि को तृप्त करने के लिए कुछ आहार लेना ही पड़ता है, भोजन की प्रशंसा सुनकर किसी का पेट नहीं भरता। बड़ी-बड़ी बातों से तृप्ति नहीं मिलती, तृप्ति -- प्रेम, समर्पण और उपासना से ही मिलती है।
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जो चेले से उपासना नहीं करा सकता, वह गुरु भी क्या गुरु है? गुरु ऐसा हो जो चेले को नर्ककुंड से बलात् निकाल कर अमृतकुंड में फेंक दे।
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जब हम अग्नि के समक्ष बैठते हैं तो ताप की अनुभूति होती है, वैसे ही परमात्मा के समक्ष बैठने से उनका अनुग्रह मिलता ही है। प्रभु के समक्ष हमारे सारे दोष भस्म हो जाते हैं। परमात्मा का ध्यान निरंतर तेलधारा के सामान होना चाहिए। तेल को एक पात्र से दूसरे में डालते हैं तो उसकी धार खंडित नहीं होती, वैसे ही हमारी साधना भी अखंड होनी चाहिए।
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इस सृष्टि में निःशुल्क कुछ भी नहीं है। हर चीज की कीमत चुकानी पडती है। भगवान भी परमप्रेम, अनुराग और समर्पण से मिलते हैं, इनके बिना नहीं। यह भगवान को पाने का शुल्क है। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
28 अप्रेल 2021

मैं वही लिखूँगा जिसका आदेश अन्तर्रात्मा में भगवान स्वयं देंगे ---

 मैं वही लिखूँगा जिसका आदेश अन्तर्रात्मा में भगवान स्वयं देंगे ---

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मैं स्वयं या किसी अन्य की प्रसन्नता के लिए नहीं, अपितु भगवान की प्रसन्नता के लिए ही लिखता हूँ। वर्तमान में मेरी सबसे बड़ी समस्या है -- भगवान को पूर्णतः समर्पण; क्योंकि अभी भी थोड़े-बहुत तमोगुण के अन्धकार का मुझ में अवशेष है।
अपने मित्रों को यही सलाह दूंगा कि गीता के भक्तियोग नामक १२ वें अध्याय का अर्थ सहित नित्य पाठ करें। इसमें सिर्फ २० श्लोक हैं। इसे रट लें। प्रातः और सायं दोनों समय या कम से कम एक बार तो इसका पाठ अवश्य करें।
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भगवान को साक्षी कर के मैं वचन देता हूँ कि अर्थ सहित जो गीता के इस भक्ति योग नाम के १२ वें अध्याय का नित्य पाठ करेगा, उसका इसी जन्म में अकल्पनीय कल्याण होगा। भगवान की उस पर विशेष कृपा होगी।
ॐ तत्सत् !!
२८ अप्रेल २०२३

प्राणायाम की दो प्राचीन विधियाँ ---

 प्राणायाम की दो प्राचीन विधियाँ ---

प्राणायाम एक आध्यात्मिक साधना है जो हमारी चेतना को परमात्मा से जोड़ता है। यह कोई श्वास-प्रश्वास का व्यायाम नहीं है, यह योग-साधना का भाग है जो हमारी प्राण चेतना को जागृत कर उसे नीचे के चक्रों से ऊपर उठाता है। मैं यहाँ प्राणायाम की दो अति प्राचीन और विशेष विधियों का उल्लेख कर रहा हूँ। ये निरापद हैं। ध्यान साधना से पूर्व खाली पेट इन्हें करना चाहिए। इनसे ध्यान में गहराई आयेगी।
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(१) (a) खुली हवा में पवित्र वातावरण में पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन में पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुँह कर के कम्बल पर बैठ जाइए। यदि भूमि पर नहीं बैठ सकते तो भूमि पर कम्बल बिछाकर, उस पर बिना हत्थे की कुर्सी पर कमर सीधी कर के बैठ जाइए। कमर सीधी रहनी चाहिए अन्यथा कोई लाभ नहीं होगा। कमर सीधी रखने में कठिनाई हो तो नितंबों के नीचे पतली गद्दी रख लीजिये। दृष्टी भ्रूमध्य को निरंतर भेदती रहे, और ठुड्डी भूमि के समानांतर रहे।
(b) अब तीनों बंध (मूलबंध, उड्डियानबंध और जलंधरबंध) लगायें; जिनकी विधि इस प्रकार है -- बिना किसी तनाब के फेफड़ों की पूरी वायू नाक द्वारा बाहर निकाल दीजिये, गुदा का संकुचन कीजिये, पेट को अन्दर की ओर खींचिए और ठुड्डी को नीचे की ओर कंठमूल तक झुका लीजिये। दृष्टी भ्रूमध्य में ही रहे।
(c) मेरु दंड में नाभी के पीछे के भाग मणिपुर चक्र पर मानसिक रूप से ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का जितनी देर तक बिना तनाव के जप कर सकें कीजिये। इस जप के समय हम मणिपुर चक्र पर प्रहार कर रहे हैं।
(d) आवश्यक होते ही सांस लीजिये। सांस लेते समय शरीर को तनावमुक्त कर a वाली स्थिति में आइये और कुछ देर अन्दर सांस रोक कर नाभि पर ओंकार का जप करें। जप के समय हम नाभि पर ओंकार से प्रहार कर रहे हैं।
(e) उपरोक्त क्रिया को दस बारह बार दिन में दो समय कीजिये| इस के बाद ध्यान कीजिये।
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(2)
एक दूसरी विधि है :------ उपरोक्त प्रक्रिया में a और b के बाद धीरे धीरे नाक से सांस लेते हुए निम्न मन्त्रों को सभी चक्रों पर क्रमश: मानसिक रूप से एक एक बार जपते हुए ऊपर जाएँ|
मूलाधारचक्र ........ ॐ भू:,
स्वाधिष्ठानचक्र ..... ॐ भुव:,
मणिपुरचक्र ......... ॐ स्व:,
अनाहतचक्र ........ ॐ मह:,
विशुद्धिचक्र ......... ॐ जन:,
आज्ञाचक्र ............. ॐ तप:,
सहस्त्रार................ ॐ सत्यम् |
(इसके पश्चात जिन का उपनयन संस्कार हो चुका है, वे गायत्री मंत्र का जप भी कर सकते हैं। उनके लिए तीन मंत्र और भी हैं).
इसके बाद सांस स्वाभाविक रूप से चलने दें लेते हुए अपनी चेतना को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विस्तृत कर दीजिये| ईश्वर की सर्वव्यापकता आप स्वयं हैं| आप यह देह नहीं हैं| जैसे ईश्वर सर्वव्यापक है वैसे ही आप भी सर्वव्यापक हैं| पूरे समय तनावमुक्त रहिये| कई अनुष्ठानों में प्राणायाम करना पड़ता है वहां यह प्राणायाम कीजिये| संध्या और ध्यान से पूर्व भी यह प्राणायाम कर सकते हैं| धन्यवाद|
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२७ अप्रेल २०२१

भारत की कूटनीति ने अमेरिका तक को झुका दिया है ---

Dated 27 April 2021  
मैं सोच रहा था कि अब आध्यात्म के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय पर नहीं लिखूँगा, लेकिन पिछले दो-तीन दिनों में एक ऐसी महत्वपूर्ण घटना घटी है कि उसे लिखे बिना नहीं रह सकता। वह घटना है भारत की सफल विदेश नीति की जिसने अपनी कूटनीति द्वारा अमेरिका को झुका दिया है। इसके लिए तीन व्यक्ति धन्यवाद के पात्र हैं -- भारत के विदेशमंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, और प्रधानमंत्री। सं १९४७ ई.के बाद से पहली बार भारत इस समय जितना सशक्त है, उतना पहले कभी भी नहीं था। यह भारत की कूटनीतिक विजय है।

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सैनिक दृष्टि से भी भारत अब जितना सशक्त है, जितना दृढ़ मनोबल और आत्म-विश्वास भारत में है, उतना पहले कभी भी नहीं था। उदाहरण है, लद्दाख में चीन को बिना युद्ध किए पीछे लौटने को बाध्य करना। धारा ३७० और ३५ए की समाप्ति, भारत के दृढ़ मनोबल को दिखाती है। सन २०१४ तक भारत, चीन से डरता था। अब स्थिति पलट गई है, अब चीन भारत से डरता है। अब चीन और पाकिस्तान ने अपना पूरा ज़ोर लगा रखा है कि कैसे भी भारत के वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व को बदला जाये ताकि वे ही पुराने कमीशनखोर और डकैत लोग सत्ता में आ जाएँ। भारत में पहले कभी उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई क्योंकि भारत का अधिकांश धन तो चोरी और डकैती द्वारा विदेशी बैंकों में चला जाता था जिस से दूसरे देशों की प्रगति होती थी, भारत की नहीं। अब भारत का पैसा बाहर जाना बंद हुआ है तब से भारत की प्रगति शुरू हुई है।
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पिछले दिनों अमेरिका का वाइडेन प्रशासन अपने पुराने भारत विरोध पर खुल कर उतर आया था, प्रत्युत्तर में भारत ने अपना बहुमुखी कूटनीतिक प्रहार किया|
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(१) सबसे पहले हमारे विदेश मंत्री ने बयान दिया कि भारत अपनी रणनीति को बदल सकता है। हो सकता है चीन के विरुद्ध युद्ध में भारत, अमेरिका का साथ न दे। यह सबसे बड़ा कूटनीतिक प्रहार था, जिस से अमेरिका तिलमिला गया।
(२) फिर भारत ने कह दिया कि भारत अपनी स्वदेशी कोवैक्सिन ही बनायेगा जिसका सारा कच्चा माल भारत में पर्याप्त है। इसकी कीमत भी बढ़ा दी, जो एक कूटनीति थी। इसका पूरी दुनिया में मनोवैज्ञानिक असर पड़ा। जो अप्रत्याशित घटनाक्रम हुआ, उस से यूरोपीय संघ एकदम से भारत के पक्ष में आ गया। दुनिया के गरीब देशों को भी भारत से ही आशा थी उनकी आवश्यकताओं को भारत का दवा उद्योग ही पूरा कर सकता है।
(३) चीन ने भी भारत को धमकियाँ देना शुरू कर दिया कि भारत, अमेरिका के पक्ष में न जाये, क्योंकि अमेरिका ने सदा भारत को धोखा दिया है। भारत का जनमानस भी अमेरिका विरोधी होने लगा। भारत के सुरक्षा सलाहकार ने अपने समकक्ष अमेरिकी अधिकारियों के कान भरने आरंभ कर दिये कि भारत का जनमानस अब अमेरिका के विरोध में जा रहा है अतः भारत से सहयोग की अपेक्षा न रखें।
(४) भारत ने अमेरिका को दी जाने वाली फार्मास्युटिकल सप्लाई को बंद करने की धमकी दे दी, जिस से अमेरिका के फार्मास्यूटिकल उद्योग पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता, और वहाँ बनने वाली फाइजर वेक्सीन का उत्पादन रुक जाता।
(५) अमेरिका में भारतीय लॉबी खुल कर वाइडेन प्रशासन के विरोध में उतर आई। परिणाम आप सब के सामने है। वाइडेन प्रशासन को भारत के पक्ष में झुकना ही पड़ा।
यह भारत के प्रधानमंत्री की कूटनीतिक विजय और शक्ति है।

२७ अप्रेल २०२१

क्या वर्तमान में कोई नालंदा विश्वविद्यालय नाम की संस्था चल रही है ? ....

 क्या वर्तमान में कोई नालंदा विश्वविद्यालय नाम की संस्था चल रही है ? ....

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जब विश्व के महानतम अनर्थ शास्त्री डॉ.मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री थे, उस समय उन्होंने अमर्त्य सेन को नालंदा विश्वविद्यालय फिर से चालु करने का ठेका दिया। उन्हें उपकुलपति का पद, पाँच लाख रूपये का मासिक टेक्स फ्री वेतन, बिना अनुमति सरकारी खर्चे पर विदेश यात्राएं करने, ५ स्टार होटलों में मीटिंग करने, वहीं रुकने, प्रोफेसरों की सीधी भर्ती करने आदि की खुली छूट दीं। महा बेईमान मनमोहन सिंह की ३ बेटियों के साथ मिलीभगत करके अमर्त्य सेन ने भारत सरकार के खजाने से २७२९ करोड़ रुपए डकार लिये। |
मनमोहन सिंह की बेटियों -- उपिंदर सिंह, दमन सिंह और अमृतसिंह को प्रोफेसर बना दिया गया और साथ ही उपिंदर सिंह की 3 सहेलियों गोपा सभरवाल, अंजना शर्मा , नयनजोत लाहिरी को भी प्रोफेसर बना दिया। ये सातों अमेरिका में बैठकर ही नालंदा विश्वविद्यालय को चलाते रहे, और भारत की गरीब जनता के टैक्स के २७१९ करोड़ रुपए वेतन और विदेश घूमने (अमरीका में रहने) के नाम पर खर्चे पानी के डकार गये।
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२०१४ में मोदी सरकार ने आकर यह लूट बंद कर दी और अमर्त्य सेन को नालन्दा विश्वविद्यालय से निकाल दिया। इससे नाराज होकर वह दुष्ट अनर्थ शास्त्री अमर्त्य सेन अब मोदी सरकार को कोसता रहता है।
27 अप्रेल 2019

Saturday, 26 April 2025

इस ब्रह्मांड में कोई भी या कुछ भी हम से पृथक नहीं है, हम सब के साथ एक हैं ---

परमात्मा को कुछ लौटाना है। जिस दिन वे अपना दिया हुआ सामान हम से बापस ले लेंगे, उसी क्षण हम परमात्मा को उपलब्ध हो जाएँगे। उनका दिया हुआ एकमात्र सामान जो अभी भी इस समय हमारे पास है, वह है तथाकथित रूप से हमारा "अन्तःकरण" (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार)। जिस क्षण यह अन्तःकरण उनका हो जाएगा, माया का कोई भी अस्त्र (आवरण व विक्षेप) हम पर नहीं चलेगा। उनके और हमारे मध्य कोई भेद भी नहीं रहेगा।

चाहे कोई भी आध्यात्मिक साधना हो, साधना वो ही करनी चाहिए जो निज स्वभाव के अनुकूल और सहज हो। जिस साधना में किसी भी प्रकार का लोभ यानि प्रलोभन हो, वह नहीं करनी चाहिए। हमारा लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति है, न कि किसी प्रकार के भोग की प्राप्ति। जहां भोग का प्रलोभन हो वहाँ मैं नहीं टिक सकता। यह मैं बहुत सोच समझ कर पूरी ज़िम्मेदारी के साथ लिख रहा हूँ। २७ अप्रैल २०२४

Friday, 25 April 2025

मौन-साधना ---

 मौन-साधना ---

कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ। मौन-साधना का विकल्प ही चुन रहा हूँ। अब मौन साधना ही अच्छी लग रही है, जिसका एकमात्र उद्देश्य -- परमात्मा को पूर्ण-समर्पण है। कोई आकांक्षा/कामना नहीं है। इस जीवन में खूब सत्संग, स्वाध्याय और साधना का साक्षी हूँ, अतः परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी से किसी भी प्रकार के मार्गदर्शन की आवश्यकता अब नहीं है। आध्यात्मिक अनुभूतियाँ ही मेरा मार्गदर्शन करती हैं।
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धर्म की रक्षा, और अधर्म के नाश के लिये भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण जैसे अवतारों की भारत को आवश्यकता है। राष्ट्र की अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं। राष्ट्र आज बहुत अधिक आहत है। मेरे ह्रदय की पीड़ा भारत की पीड़ा है। हम लोग दायित्व बोध से रहित, और प्रज्ञाहीन हो गये हैं। भगवान अपने सभी भक्तों, और राष्ट्र की रक्षा करें।
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पुनश्च: ---
(प्रश्न) : सूर्य, चन्द्र और तारों को चमकने, पुष्प को महकने, व महासागर को इतनी जल राशि एकत्र करने के लिये कौन सी साधना या तप करना पड़ता है?
(उत्तर) : शांत होकर प्रभु को अपने भीतर प्रवाहित होने दो। उनका विलय अपने अस्तित्व में कर दो। उनकी उपस्थिति के प्रकाश से जब ह्रदय पुष्प की भक्ति रूपी पंखुड़ियाँ खिलेंगी तो उनकी महक अपने ह्रदय से सर्वत्र फ़ैल जायेंगी। हरिः ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ अप्रेल २०२५

माओवाद यानि नक्सलवाद को एक दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति से समाप्त किया जा सकता है ---

माओवाद यानि नक्सलवाद को एक दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति से समाप्त किया जा सकता है| इसमें राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठना पडेगा| सभी शासकों को पता है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं| इस कार्य के लिए विशेषज्ञ भी हैं और अनुभवी व्यक्ति भी| पर राजनीतिक स्वार्थ आड़े आ जाते हैं|

(१) सबसे पहले तो स्वयं को माओवादी क्रांतिकारी बताने वाले ठगों से वनवासियों को बचाना होगा| इन ठगों का निश्चित विनाश तो करना ही होगा|
(२) फिर प्राकृतिक संसाधनों .... जल, जंगल, जमीन, खनिज और पहाड़ को बचाने के लिए वनवासियों का सहयोग लेना ही होगा और उन्हें ही इसकी जिम्मेदारी भी देनी होगी|
(३) वनवासियों को साहूकारों, सरकारी कर्मचारियों और पूंजीपतियों के शोषण से बचाना होगा|
(४) वनवासियों के लिए एक पुलिस का सिपाही और एक कनिष्ठ से कनिष्ठ सरकारी कर्मचारी ही सरकार होता है| सरकारी कर्मचारियों को भी प्रशिक्षित करना होगा की वे वनवासियों को सताएँ नहीं|
(५) वनवासी क्षेत्रों में निःशुल्क शिक्षा और इलाज की व्यवस्था करनी होगी|
(६) वनवासी कल्याण परिषद् जैसी संस्थाओं को सहयोग देना भी होगा और उनसे सहयोग लेना भी होगा| उन्हें इस क्षेत्र का बहुत अनुभव है|
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>>> नक्सलवाद एक विफल विचारधारा है| इसके संस्थापक कानू सान्याल ने इसके भटकाव और विफलता से दुःखी होकर आत्म ह्त्या कर ली थी| उनके सहयोगी चारू मजूमदार भी निराश होकर ह्रदय रोग से मर गए थे| इस पर मैं एक लेख पोस्ट कर चुका हूँ| इस आसुरी विचारधारा का कोई भविष्य नहीं है|

२६ अप्रैल २०१७

मैं मेरे प्रभु के साथ एक हूँ। चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, वे मुझे अपने साथ ही रखेंगे, कभी मेरा साथ नहीं छोड़ेंगे।

मैं मेरे प्रभु के साथ एक हूँ। चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, वे मुझे अपने साथ ही रखेंगे, कभी मेरा साथ नहीं छोड़ेंगे। मेरे विगत सारे पाप-पुण्य, उन्होनें अपने ऊपर ले लिए हैं, और मुझे अपने हृदय में स्थान दे दिया है, जहाँ कोई पाप-पुण्य और कर्मफल अब मेरा स्पर्श भी नहीं कर सकते। कोई भी रोग, शोक, दोष, दुःख, और पीड़ा, मेरे आसपास भी नहीं आ सकतीं। किसी भी रोग के विषैले जीवाणु मेरे समक्ष आने से पूर्व ही नष्ट हो जाते हैं, वे मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। जब भगवान स्वयं मेरी रक्षा कर रहे हैं, तो अन्य कोई सहारा नहीं चाहिए। यमराज भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। जब समय आयेगा तब यह शरीर नष्ट हो जाएगा, और तुरंत दूसरा मिल जाएगा। मैं अजर, अमर, शाश्वत आत्मा हूँ, जो अपने पारब्रह्म परमात्मा परमशिव के साथ एक है। ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ अप्रेल २०२१
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भगवान की सुनूँ या स्वयं की? ---

भगवान की सुनूँ या स्वयं की? --- भगवान एक बहुत गहरी बात कह रहे हैं जो समझने में बहुत कठिन है। लेकिन उसे सुनना भी पड़ेगा और उस का अनुसरण भी करना ही होगा ---

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किसी भी अनात्म विषय पर चिंतन मात्र से आजकल बड़ी पीड़ा होती है, अनात्म विषयों का चिंतन करने वालों का कुसंग भी दुःखदायी होता है। लेकिन भगवान एक दूसरी ही बात कह रहे हैं। जब भी भगवान का ध्यान करता हूँ, भगवान कहते हैं कि यह सम्पूर्ण सृष्टि तुम स्वयं हो। यह सारी सृष्टि तुम्हारा ही प्रतिबिंब है। अपने प्रतिबिंब पर दोषारोपण मत करो। स्वयं को परिवर्तित करो, और यह भौतिक सृष्टि भी परिवर्तित हो जायेगी।
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यह अब तक का भौतिक जीवन तो नष्ट हो गया है। जीवन में बहुत कुछ करना था लेकिन चिड़िया चुग गई खेत। अब उस पर पछताना या विचार करना भी व्यर्थ है। एक ही कार्य रह गया है कि जो भी समय अवशिष्ट है उसका अधिकतम और सर्वश्रेष्ठ उपयोग किया जाये।
ॐ इति॥ ॐ शुभम् भवतु ॥ ॐ शिवम भवतु॥ ॐ स्वस्ति॥ ॐ श्रीनारायण हरिः॥
कृपा शंकर
२६ अप्रेल २०२४

हम सब को भगवान से बहुत प्यार है। हम सब भगवान को जानना चाहते हैं, लेकिन जान नहीं पाते, इसका क्या कारण है? भगवान को जानना हमारी बौद्धिक क्षमता से परे क्यों हैं?

इस प्रश्न का उत्तर गीता में भगवान ने अनेक बार अनेक स्थानों पर दिया है। भगवान की परम कृपा से मेरे जैसा अल्पज्ञ भी अंधों में काणा राजा बनकर ज्ञान की बातें लिखता रहता है। भगवान ने अपनी ओर से कोई कमी नहीं छोड़ी है। मुझे भी भगवान ने अपनी करुणावश, मेरी बुद्धि में स्पष्टता और सच्चिदानंद की अनुभूतियाँ अनेक बार मुझे प्रदान की हैं। किसी भी तरह का कोई संशय मुझ में भगवान ने नहीं छोड़ा है। जब मेरे जैसा अल्पज्ञ भी संतुष्ट है तो आप तो बहुत बड़े बड़े ज्ञानी लोग हैं।

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गीता के सातवें अध्याय "ज्ञान-विज्ञान योग" में भगवान हमें परा और अपरा प्रकृतियों के बारे में बताते हैं। हमारी बुद्धि अपरा-प्रकृति का भाग है। भगवान हमें अपरा-प्रकृति से ऊपर उठकर परा-प्रकृति में स्थित होने को कहते हैं। इन दोनों प्रकृतियों से भी परे की एक परावस्था है, जिसमें हम ज्ञान का भी अतिक्रमण कर, ज्ञानातीत हो जाते हैं। वहाँ हम, हम नहीं होते, केवल आत्मरूप परमात्मा ही होते हैं। उस अवस्था को "कैवल्य" अवस्था कहते हैं। अपरा व परा प्रकृतियों को हम भगवान की कृपा से ही समझ सकते हैं। भगवान कहते हैं --
"भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥७:४॥"
"अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।७:५॥"
"एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा॥७:६॥"
"मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥९:१०॥"
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अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं -- पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश) तथा मन, बुद्धि और अहंकार। परा प्रकृति -- हमारा जीव रूप है।
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भगवान की अनन्य-भक्ति और अपने आत्म-स्वरूप के निरंतर ध्यान से कैवल्य-अवस्था की प्राप्ति होती है। कैवल्य अवस्था -- में कोई अन्य नहीं, आत्म-रूप में केवल परमात्मा होते हैं। यह अवस्था शुद्ध बोधस्वरुप है, जहाँ केवल स्वयं है, स्वयं के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है -- एकोहम् द्वितीयो नास्ति। जीवात्मा का शुद्ध निज स्वरूप में स्थित हो जाना कैवल्य है।
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"एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥"
(श्वेताश्वतरोपनिषद्षष्ठोऽध्यायः मंत्र ११)
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हम परमात्मा को जान नहीं सकते, लेकिन समर्पित होकर परमात्मा के साथ एक हो सकते हैं; वैसे ही जैसे जल की एक बूँद, महासागर को जान नहीं सकती, लेकिन समर्पित होकर महासागर के साथ एक हो जाती है। तब वह बूँद, बूँद नहीं रहती, स्वयं महासागर हो जाती है। सम्पूर्ण सृष्टि मुझ में है, और मैं सम्पूर्ण सृष्टि में हूँ। मेरे सिवाय अन्य कोई नहीं है। शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि !! यही कैवल्यावस्था है।
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आप सब को सप्रेम सादर नमन !! ॐ तत्सत् !! 🙏🕉🙏
कृपा शंकर
२६ अप्रेल २०२४

प्रतिबिंब पर दोषारोपण मत करो ---

भगवान कहते हैं कि यह सम्पूर्ण सृष्टि तुम स्वयं हो। यह समस्त सृष्टि हमारा ही प्रतिबिंब है। स्वयं को परिवर्तित करो, और यह भौतिक सृष्टि भी परिवर्तित हो जायेगी। अपने प्रतिबिंब पर दोषारोपण मत करो। हम अकिंचन-भाव में रहें या परमशिव-भाव में, बात एक ही है। परमात्मा के ध्यान में यह अकिंचन-भाव, परमशिव-भाव में परिवर्तित हो जाता है। यह काम केवल बातों से नहीं होगा। धरातल पर परमात्मा का गहन व दीर्घ ध्यान और साधना करनी होगी। ऊर्ध्वस्थ कूटस्थ सूर्यमण्डल में भगवान पुरुषोत्तम का ध्यान करें।
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"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥"
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥"
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥"
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥"
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥"
ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२६ अप्रेल २०२५

रामनाम का बैंक आपको लाख गुणा फल देता है ----

रामनाम का बैंक आपको लाख गुणा फल देता है ---
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आजकल स्टॉक मार्केट के व्यवसायी सोशियल मीडिया पर छाए हुये हैं, जो आपको अपने भौतिक धन के विनिवेश की सलाह देते हैं। मैं आपको रामनाम के एक ऐसे बैंक के बारे में बताना चाहता हूँ जिसमें निवेशित आपके भजन का धन दिन दूना और रात चौगुना हो जायेगा। उस धन पर न तो कोई डाका डाल सकता है और न कोई आपको ठग सकता है। उस धन को यमराज भी आपसे नहीं छीन सकता। वह धन जन्म-जन्मांतरों तक आपके काम आएगा। आपको बस इतना ही करना है कि रात्री को सोने से पूर्व दस-पंद्रह मिनट भगवान के नाम का कीर्तन करके सोयें। प्रातःकाल उठते ही कुछ मिनट तक दुबारा भगवान के नाम का कीर्तन करें। पूरे दिन भगवान को अपनी स्मृति में रखें, और स्वधर्म का पालन करें।
आप शाश्वत आत्मा हैं। आत्मा का स्वधर्म है -- परमात्मा को पाने की अभीप्सा। अन्य किसी भी तरह की कोई आकांक्षा न हो। यही हामारा स्वधर्म है।
गीता में भगवान कहते हैं --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥११:३५॥"
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थोड़े-बहुत स्वधर्म का पालन भी महाभय से रक्षा करेगा ---
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
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भगवान समान रूप से सर्वत्र व्यापात हैं। आप निरंतर उनका नाम-स्मरण कीजिये और पुण्यार्जन कीजिये। इससे बड़ा कोई धर्म नहीं है। भगवान कहते हैं ---
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
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और क्या चाहिये? भगवान स्वयं इस बैंक के स्वामी हैं। यह बैंक हर समय आपके कारण शरीर से जुड़ी हुई है, अतः कहीं खो भी नहीं सकती। यह सस्ते से सस्ता और सर्वाधिक लाभदायक सौदा है। इससे अधिक लाभदायक अन्य कुछ भी नहीं है। अब रही बात मेरी फीस यानि मेरे कमीशन की -- तो दो बार भगवान का नाम बड़े प्रेम से लीजिये, मुझे मेरी फीस मिल चुकी है।
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नारायण !! नारायण !! नारायण !! जो भी इन पंक्तियों को पढ़ रहा है, वह धन्य है। मैं उसे नमन करता हूँ।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ अप्रेल २०२४

== खेचरी मुद्रा == (भाग २)

== खेचरी मुद्रा ==

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(भाग 2)
शिव संहिता में खेचरी की महिमा इस प्रकार है :-----
करोति रसनां योगी प्रविष्टाम् विपरीतगाम्|
लम्बिकोरर्ध्वेषु गर्तेषु धृत्वा ध्यानं भयापहम्||
एक योगी अपनी जिव्हा को विपरीतागामी करता है, अर्थात जीभ की तालुका में जीभ को बिठाकर ध्यान करने बैठता है, उसके हर प्रकार के कर्म बंधनों का भय दूर हो जाता है|
योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय खेचरी मुद्रा के लिए कुछ योगियों के सम्प्रदायों में प्रचलित छेदन, दोहन आदि पद्धतियों के सम्पूर्ण विरुद्ध थे| वे एक दूसरी ही पद्धति पर जोर देते थे जिसे 'तालब्य क्रिया' कहते हैं| इसमें मुंह बंद कर जीभ को ऊपर के दांतों व तालू से सटाते हुए जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जाते हैं| फिर मुंह खोलकर झटके के साथ जीभ को जितना बाहर फेंक सकते हैं उतना फेंक कर बाहर ही उसको जितना लंबा कर सकते हैं उतना करते हैं|
इस क्रिया को नियमित रूप से दिन में कई बार करने से कुछ महीनों पश्चात जिव्हा स्वतः लम्बी होने लगती है और गुरु कृपा से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है| योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जी मजाक में इसे ठोकर क्रिया भी कहते थे|
लाहिड़ी महाशय ध्यान करते समय खेचरी मुद्रा पर बल देते थे| जो इसे नहीं कर सकते थे उन्हें भी वे ध्यान करते समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से सटा कर बिना तनाव के जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जा कर रखने पर बल देते थे|
तालब्य क्रिया एक साधना है और खेचरी सिद्ध होना गुरु का प्रसाद है|
जब योगी को खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाती है तब उसकी गहन ध्यानावस्था में सहस्त्रार से एक रस का क्षरण होने लगता है| सहस्त्रार से टपकते उस रस को जिव्हा के अग्र भाग से पान करने से योगी दीर्घ काल तक समाधी में रह सकता है, उस काल में उसे किसी आहार की आवश्यकता नहीं पड़ती, स्वास्थ्य अच्छा रहता है और अतीन्द्रीय ज्ञान प्राप्त होने लगता है|
खेचरी मुद्रा की साधना की एक और वैदिक विधि है| पद्मासन में बैठकर जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर ऋग्वेद के एक विशिष्ट मन्त्र का उच्चारण सटीक छंद के अनुसार करना पड़ता है| उस मन्त्र में वर्ण-विन्यास कुछ ऐसा होता है कि उसके सही उच्चारण से जो कम्पन होता है उस उच्चारण और कम्पन के नियमित अभ्यास से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है|
मुझे उस मन्त्र का ज्ञान नहीं है अतः उस पर चर्चा नहीं करूंगा|
भगवान् दत्तात्रेय के अनुसार----
अन्तःकपालविवरे जिव्हां व्यावृत्तः बंधयेत्|
भ्रूमध्ये दृष्टिरपोषा मुद्राभवति खेचरी||
अर्थात जिव्हा को पलटकर मस्तक-छिद्र के अभ्यंतर में पहुंचाकर भ्रूमध्य में दृष्टी को स्थापित करना खेचरी मुद्रा है|
यह तो भौतिक स्तर पर की जाने वाली साधना है जो ध्यान योग में तीब्र प्रगति के लिए आवश्यक है| पर आध्यात्मिक रूप से खेचरी सिद्ध वही है जो आकाश अर्थात ज्योतिर्मय ब्रह्म में विचरण करता है| साधना की आरंभिक अवस्था में साधक प्रणव ध्वनी का श्रवण और ब्रह्मज्योति का आभास तो पा लेता है पर वह अस्थायी होता है| उसमें स्थिति के लिए दीर्घ अभ्यास, भक्ति और समर्पण की आवश्यकता होती है|
भगवान दत्तात्रेय के अनुसार साधक यदि शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को नासिका मूल (भ्रूमध्य के नीचे) के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐ से लिपटी दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करता है, उसके ध्यान में विद्युत् की आभा के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है| अगर ब्रह्मज्योति को ही प्रत्यक्ष कर लिया तो फिर साधना के लिए और क्या बाकी बचा रह जाता है|
कल से चल रही खेचरी मुद्रा पर चर्चा का आज समापन करता हूँ| योग साधक तो इसे सीखते ही हैं| जो साधक नहीं हैं उनकी भी रूचि जागृत हो इसके लिये यह चर्चा है|
कल कुछ सीमित मंचों पर महामुद्रा और योनिमुद्रा पर प्रस्तुति दूंगा| ॐ शिव|

अक्षय तृतीया समस्त मानवता के लिए मंगलमय हो --- .

 अक्षय तृतीया समस्त मानवता के लिए मंगलमय हो ---

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भारत के लिए इसका महत्व विशेष है क्योंकि इस दिन परशुराम जयंती पडती है|
भारत की वर्तमान परिस्थितियों में भगवान परशुराम के भाव की सर्वाधिक आवश्यकता है| यदि हम अपने धर्म और राष्ट्र की रक्षा करना चाहते हैं तों हमें परशुराम की तेजस्विता और चरित्र को स्वयं मे अवतरित कर स्वयं परशुराम बनना होगा|
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राष्ट्र की वर्तमान परिस्थिति में एक नहीं अनेक परशुरामों की आवश्यकता है|
योग-दर्शन का एक सूत्र है --- 'वीतराग विषयं वा चितः'| यानि किसी वीतराग के बारे मे चिंतन करते करते हमारा चित्त भी वीतराग बन जाता है|
महाभारत में एक यक्ष प्रश्न के उत्तर मे महाराज युधिष्ठिर कहते है --- 'महाजनो येन गतः सः पन्थाः'| अर्थात महापुरुष जिस मार्ग पर चले हैं वह ही सही मार्ग है|
आज के समय हमें भगवान परशुराम जैसे व्यक्तित्व के मार्ग पर चलने की आवश्यकता है|
यदि आप के एक हाथ मे शास्त्र हैं तों उसकी रक्षा के लिए दूसरे हाथ मे शस्त्र भी होने चाहिएं| हमारे सभी देवी-देवताओं के हाथ मे शस्त्र हैं| अब समय आ गया है कि हमें धर्म-रक्षा के लिए शास्त्र और शस्त्र दोनों धारण करने होंगे| चरित्रवान और तेजस्वी भी बनना होगा, अन्यथा हम नष्ट हो जायेंगे|
भगवान परशुराम कि जय| सनातन हिंदू धर्म कि जय|
समस्त सृष्टि का कल्याण हो|
२५ अप्रेल २०१२