यह जीवन अब मुक्तावस्था में निरंतर ब्राह्मी-स्थिति में ही रहे (शिवो भूत्वा शिवं यजेत्) ---
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मैं नित्यमुक्त, बड़ी सत्यनिष्ठा से, अपने हृदय की बात कह रहा हूँ। जिन की समझ में आये उन का मंगल हो, और जिन की समझ में न आये उन का भी मंगल हो।
बाल्यकाल से ही मैं एक गहन जिज्ञासु रहा हूँ जो अति उत्सुकता से अपने आसपास के घटनाक्रम का बहुत गहराई से अवलोकन करता है। जीवन में ऊँच-नीच, न्याय-अन्याय, और अच्छा-बुरा सब कुछ बहुत अधिक देखा है, और उससे बहुत कुछ सीखा भी है। मेरे भी अपने आदर्श हैं, और अपनी स्वयं की विचारधारा भी है। लेकिन मैं अपने चारों ओर छाई हुई असत्य और अंधकार की शक्तियों से बहुत ही अधिक पीड़ित रहा हूँ। उन्होंने मुझे बहुत अधिक दुःख दिया है। इनके पीछे क्या रहस्य है? मुझे नहीं पता। पिछले जन्मों के कर्मफल रहे होंगे। जीवन के इस संध्याकाल में अब कोई कामना या आकांक्षा नहीं रही है। अवशिष्ट जीवन में जो भी सर्वश्रेष्ठ हो सकता है, उसी की उपासना में यह जीवन व्यतीत हो जाये, ताकि जो भी हो वह मंगलमय हो।
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एक अभीप्सा है -- अव्यक्त को व्यक्त करने की। किसी भी तरह का कोई संशय या शंका नहीं है। प्रकृति की प्रत्येक शक्ति मेरा साथ देगी ऐसी मेरी दृढ़ आस्था, श्रद्धा और विश्वास है। परमात्मा मेरे साथ हैं जिनके समक्ष कोई असत्य का अंधकार नहीं टिक सकता। मैं सदा कूटस्थ चैतन्य में, यानि ब्राह्मी स्थिति में रहूँ, और मेरी चेतना परम प्रेममय होकर समष्टि के साथ एक होकर रहे।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् - हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
यह अवस्था ब्राह्मी यानी ब्रह्म में होनेवाली स्थिति है, जहाँ सर्व कर्मों का संन्यास कर के केवल ब्रह्मरूप से स्थित हो जाना है। परमात्मा सब गुरुओं के गुरु हैं। उनसे प्रेम करो, सारे रहस्य अनावृत हो जाएँगे। हम भिक्षुक नहीं, परमात्मा के अमृत पुत्र हैं। मुझे सब में परमात्मा के ही दर्शन होते हैं। अतः सभी को मैं नमन करता हूँ।
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भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं --
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं॥८:१०॥"
अर्थात - भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|
आगे भगवान कहते हैं --
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|
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निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना -- यह एक दिन का काम नहीं है। इसके लिए हमें आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा। उपरोक्त तथ्य के समर्थन में किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, भगवान का वचन तो है ही, और सारे उपनिषद्, शैवागम और तंत्रागम इसी के समर्थन में भरे पड़े हैं।
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ध्यान का अभ्यास करते करते चेतना सहस्त्रार पर या ब्रह्मरंध्र के मार्ग से इस शरीर से बाहर भी चली जाए तो चिंता न करें। जब तक प्रारब्ध में जीवन लिखा है, मृत्यु नहीं आने वाली। सहस्त्रार में तो गुरु महाराज के चरण कमल हैं। कूटस्थ केंद्र भी वहीं चला जाता है। वहाँ स्थिति मिल गयी तो गुरु चरणों में आश्रय मिल गया।
चेतना ब्रह्मरंध्र से बाहर निकल कर अनंत में या उस से भी परे रहने लगे तब तो और भी प्रसन्नता की बात है। वह विराटता ही तो "विराट पुरुष" है।
उस अनंतता से भी परे परमशिव की अनुभूति "पञ्चमुखी महादेव" के रूप में होती है। इस देह से बाहर दिखाई देने वाली ज्योति भी अवर्णनीय और दिव्यतम है। परमात्मा के प्रेम में मग्न रहें, फिर तो परमात्मा ही परमात्मा होंगे, न कि हम।
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खोपड़ी के पीछे का भाग मेरुशीर्ष (Medulla Oblongata) हमारी देह का सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है जहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ मष्तिष्क से मिलती हैं। इस भाग की कोई शल्यक्रिया नहीं हो सकती। हमारी सूक्ष्म देह में आज्ञाचक्र यहीं पर स्थित है। यह स्थान भ्रूमध्य के एकदम विपरीत दिशा में है। योगियों के लिए यह उनका आध्यात्मिक हृदय है। यहीं पर जीवात्मा का निवास है। इसके थोड़ा सा ऊपर ही शिखा बिंदु है, जहाँ शिखा रखते हैं। उस से ऊपर सहस्त्रार और ब्रह्मरंध्र है।
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गुरु की आज्ञा से शिवनेत्र होकर यानि बिना किसी तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में या जीभ को बिना किसी तनाव के ऊपर पीछे की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखते हुए, प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करें। गुरु की कृपा से कुछ महिनों या वर्षों की साधना के पश्चात् विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है। यह ब्रह्मज्योति और प्रणव की ध्वनि दोनों ही आज्ञाचक्र में प्रकट होती हैं, पर इस ज्योति के दर्शन भ्रूमध्य में प्रतिबिंबित होते हैं, इसलिए गुरु महाराज सदा भ्रूमध्य में ध्यान करने की आज्ञा देते हैं। ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के पश्चात् उसी की चेतना में सदा रहें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है। यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से एक है।
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दो बातें और कहना चाहता हूँ, जिन्हें बताने की भगवान से मुझे पूरी अनुमति है। आज अन्तःचेतना में स्वयं भगवान शिव ने दो बातें कहीं ---
एक तो उन्होंने कहा कि मुक्ति या मोक्ष की कामना ही मुक्ति और मोक्ष के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है। जब तक मुक्ति और मोक्ष की कामना है तब तक हम बंधन में हैं, तब न तो मुक्ति मिल सकती है और न ही मोक्ष।
दूसरी बात उन्होंने कही -- "शिवो भूत्वा शिवं यजेत्।" अर्थात स्वयं शिव बनकर शिव की उपासना करो॥
ॐ नमः शिवाय। ॐ तत्सत्। ॐ स्वस्ति। ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
३० अप्रेल २०२३