Sunday, 12 November 2017

किस किस से संघर्ष करें ? क्या करें और क्या न करें ? आध्यात्मिक साधना का सबसे बड़ा रहस्य .....

किस किस से संघर्ष करें ? क्या करें और क्या न करें ? आध्यात्मिक साधना का सबसे बड़ा रहस्य .....
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हमारे भीतर का तमोगुण, हमारी आसुरी प्रवृत्ति, हमारे दुर्गुण, और बाहरी जगत की आसुरी शक्तियाँ, .... इन सब से संघर्ष करते करते तो हमारी सारी ऊर्जा यहीं समाप्त हो जायेगी| जीवन ही नहीं बचेगा तो साधना कब और कैसे करेंगे? किस किस से संघर्ष करें? क्या करें और क्या न करें? उपदेश तो बहुत हैं पर जीवन बहुत छोटा है, बुद्धि अति अल्प और सीमित है, कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है| इस घोर निराशा भरे अन्धकार में किधर और कहाँ जाएँ?
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कोई घबराने की आवश्यकता नहीं है| भगवान में श्रद्धा और विश्वास रखें| अपना पूर्ण प्रेम उन्हें दें| भगवान के पास सब कुछ है पर एक चीज नहीं है जिसके लिए वे भी तरसते हैं, वह है हमारा परम प्रेम| जब हम उन्हें अपना पूर्ण प्रेम देंगे तो उनकी भी परम कृपा हम पर अवश्य ही होगी| भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में वचन दिया है ....


मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि |
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि || १८:५८ ||

मेरे में चित्तवाला होकर तू मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्नोंको तर जायगा, और यदि तू अहंकारके कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा|

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः || १८:६६ ||

संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा| मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर||

कितना बड़ा वचन दे दिया है भगवान ने ! और क्या चाहिए ?
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>>>>> आध्यात्मिक साधना का सबसे बड़ा रहस्य ......

यह सारे रहस्यों का रहस्य है, इस से बड़ा कोई दूसरा रहस्य नहीं है|
जीवन के जो भी कार्य हम करें वह भगवान की प्रसन्नता के लिए ही करें, न कि अहंकार की तृप्ति के लिए| धीरे धीरे अभ्यास करते करते हम भगवान के प्रति इतने समर्पित हो जाएँ कि स्वयं भगवान ही हमारे माध्यम से कार्य करने लगें| हम उनके एक उपकरण मात्र बन जाएँ| कहीं कोई कर्ताभाव ना रहें, एक निमित्त मात्र ही रहें| यह सबसे बड़ा आध्यात्मिक रहस्य और मुक्ति का मार्ग है|

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् || ११:३३ ||

इसलिये तुम युद्धके लिये खड़े हो जाओ और यशको प्राप्त करो तथा शत्रुओंको जीतकर धनधान्यसे सम्पन्न राज्यको भोगो | ये सभी मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं, हे सव्यसाचिन् तुम निमित्तमात्र बन जाओ ||
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हर समय परमात्मा की स्मृति बनी रहे| उन्हें हम अपना सर्वश्रेष्ठ प्रेम दें| और हमारे पास देने के लिए है ही क्या? सब कुछ तो उन्हीं का है| हे भगवन, आपकी जय हो| आपका दिया हुआ यह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार सब कुछ बापस आपको समर्पित है| मुझे आपके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं चाहिए|
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ॐ तत्सत् !ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ नवम्बर २०१७

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