मेरे पास अधिक समय नहीं बचा है। मेरे समक्ष दो मार्ग हैं। दो शक्तियाँ मुझ पर कार्य कर रही हैं। एक शक्ति मुझे अधोमार्ग पर ले जाना चाहती है। यह पतन का मार्ग बहुत अधिक आकर्षक और सरल है। मेरे चारों ओर का वातावरण, लगभग सारी परिस्थितियाँ, और सभी लोग उसमें सहायक हैं। अज्ञानतावश लगभग सभी उसी पर अग्रसर हो रहे हैं। मेरी अंतर्रात्मा विद्रोह कर रही है। मैं उस मार्ग का पथिक नहीं हो सकता। जो लोग बाहर से आध्यात्म की बड़ी बड़ी बातें करते हैं, उन सब का अन्तःकरण लालसाओं से भरा हुआ है, और वे सब पतन के मार्ग पर अग्रसर पथिक हैं।
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एक दूसरा ऊर्ध्वमार्ग है, जिसमें सहायक मेरे पूर्व जन्मों के गुरुगण और स्वयं भगवान वासुदेव हैं। वे पूर्ण समर्पण मांगते हैं, अन्यथा वे भी तटस्थ हैं। पूर्ण रूप से समर्पित होने पर ही वे सहायता और रक्षा करते हैं। मुझे बहुत अधिक तप करना बाकी है। इसे टाला नहीं जा सकता। इसलिए बचे हुए पूरे जीवन का सारा समय आध्यात्मिक साधना को समर्पित करना होगा। गीता का बार बार पूरी तरह स्वाध्याय बहुत आवश्यक है। गीता के शब्दों का सही अर्थ भगवान की कृपा से ही समझ में आ सकता है।
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श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न श्लोकों में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
(जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
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"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
(अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।
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"मयि चानन्ययोगेन भक्तिर्व्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
(अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि।
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रामचरितमानस में हनुमान जी कहते हैं --
"कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई॥"
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बाहर की दुनियाँ का आकर्षण बड़ा प्रबल है। यह संसार आनंद का आश्वासन देता है, लेकिन देता दुःख और कष्ट ही है। गीता मे भगवान कहते हैं --
"इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥३:३४॥"
(इन्द्रियइन्द्रिय (अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय) के विषय के प्रति (मन में) रागद्वेष रहते हैं; मनुष्य को चाहिये कि वह उन दोनों के वश में न हो; क्योंकि वे इसके (मनुष्य के) शत्रु हैं।
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"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
(सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है।
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इस विषय को और अधिक अच्छा समझाने की क्षमता मुझमें नहीं हैं। जिस पर भगवान की महती कृपा होगी, वह तो समझ जाएगा। बिना उनकी कृपा के कुछ भी समझना असंभव है।
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
"वायुर्यमोग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च
नमो नमस्तेस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोपि नमो नमस्ते॥११:३९॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥"
आप आदिदेव और पुराण (सनातन) पुरुष हैं। आप इस जगत् के परम आश्रय, ज्ञाता, ज्ञेय, (जानने योग्य) और परम धाम हैं। हे अनन्तरूप आपसे ही यह विश्व व्याप्त है।
आप वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजापति (ब्रह्मा) और प्रपितामह (ब्रह्मा के भी कारण) हैं; आपके लिए सहस्र बार नमस्कार, नमस्कार है, पुन: आपको बारम्बार नमस्कार, नमस्कार है।
हे अनन्तसार्मथ्य वाले भगवन्! आपके लिए अग्रत: और पृष्ठत: नमस्कार है, हे सर्वात्मन्! आपको सब ओर से नमस्कार है। आप अमित विक्रमशाली हैं और आप सबको व्याप्त किये हुए हैं, इससे आप सर्वरूप हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ मार्च २०२४
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